Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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अध्याय-4 प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा
यह संस्कार विधि दीक्षा अंगीकार करने से सम्बन्धित है। इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति गृहस्थ जीवन का परित्याग कर मुनि जीवन को स्वीकार करता है। मुनि जीवन को स्वीकार करना प्रव्रज्या कहलाता है। इसका अपर नाम दीक्षा है, जो वर्तमान में अधिक प्रचलित है। ____ 'दीक्षा' शब्द भारतीय संस्कृति की प्रत्येक धारा में व्यवहृत है। सभी धाराओं ने अपने-अपने मान्य अर्थों में इस शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु जैन संस्कृति में 'दीक्षा' शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैन धर्म में दीक्षा का अर्थ संन्यास या मुनि जीवन स्वीकार करने से है।
दीक्षा की परम्परा अत्यन्त प्राचीनतम है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर आज तक अनगिनत व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण कर इस परम्परा का अनुकरण किया है। जैन धर्म में दीक्षा अंगीकार को एक उत्कृष्ट कोटि की साधना माना गया है। दीक्षा का शास्त्रीय नाम प्रव्रज्या है। प्रव्रज्या एवं दीक्षा शब्द के अर्थ
प्रव्रज्या, इस शब्द में प्र उपसर्ग, व्रज् धातु और क्वप् + टाप् प्रत्यय का संयोग है। यहाँ प्र उपसर्ग सम्यग अर्थवाची और व्रज धातु गमनार्थक है। तदनुसार सत्य मार्ग का अनुसरण करना प्रव्रज्या है।
आगमिक एवं आगमेतर व्याख्या ग्रन्थों में प्रव्रज्या की निम्न व्युत्पत्तियाँ उपलब्ध होती हैं -
• स्थानांगटीका के अनुसार “पव्वयणं पव्वज्जा, पावाओ सुद्धचरणजोगेसु" अर्थात पापकारी प्रवृत्तियों से हटकर शुद्ध चरण योगों (चारित्र धर्म) में गमन करना प्रव्रज्या है।
• पंचाशकटीका के अनुसार "महाव्रत प्रतिपत्तौ" महाव्रतों को स्वीकार करना प्रव्रज्या है। यहाँ उपस्थापना यानी बड़ी दीक्षा को प्रव्रज्या की संज्ञा दी गई है।