Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 45 है। यह अनुष्ठान विशिष्ट आराधनाओं के प्रसंग पर मंगल रूप में सम्पादित किया जाता है। विशेषतः सम्यक्त्वव्रत ग्रहण, बारहव्रत ग्रहण, उपधान, प्रव्रज्या, उपस्थापना, योगोद्वहन, पदस्थापन आदि विधानों में इसे आवश्यक माना है। ___ नन्दी विधान प्रबंधन की क्रियाओं को प्रोत्साहित करता है, अत: इससे समाज प्रबंधन, जीवन प्रबंधन, तनाव प्रबंधन, वाणी प्रबंधन, कषाय प्रबंधन आदि में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त नन्दीरचना भाव प्रबंधन में भी सहायक है। यह मानसिक स्तर पर व्यक्ति को स्वस्थ एवं संतुलित बनाती है। पुन: एक सामूहिक क्रिया होने के फलस्वरूप व्रतादि धारण करने वालों के बीच एक आनन्दोत्सव की स्थिति पैदा होती है और आह्लाद-उल्लास के साथ वे तप, त्याग आदि के प्रति सुदृढ़ता के साथ आगे बढ़ते हैं।
यह व्यक्ति में जैन धर्म के महत आचारों, दर्शनों और मूल सिद्धांतों के प्रति आकर्षण और निष्ठा पैदा करने के साथ ही सुसंस्कारों के बीजारोपण एवं पल्लवन में भी यह सहायक होती है। इसके द्वारा आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में विकास होने से मानवीय गुणों में वृद्धि होती है। व्यक्ति की आंतिरक मलिनता दर होती है। क्योंकि नन्दी क्रियाओं के दौरान जिनवाणी के श्रवण, मनन से कषाय, परिग्रह, राग, आसक्ति आदि से मुक्ति और मैत्री, करुणा, अहिंसा, श्रद्धा, विनय, सद्भाव, स्नेह आदि सहज मानवीय गुणों एवं शुभ कर्मों का विकास होता है। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ. 508-509. 2. नन्दीसूत्र हारिभद्रीयटीका, पृ. 1. 3. वही, पृ. 2. 4. नंदी मंगलहेऊ, न यावि सा मंगला हि वररित्ता।
अभिधान राजेन्द्र कोश, भा. 4, पृ. 1752 5. श्रावक-श्राविकाणां नन्दीसूत्र श्रावण-नाणं पंचविहं पण्णत्तं।
वही, पृ. 1752 6. नन्दन्त्यनेनेति वा नन्दन्त्यस्मिन्निति वा नन्दयन्तीति वा। तदभेदोपचाराद् नन्दि:, हर्षः प्रमोद इत्यनर्थान्तरम्।।
नन्दीसूत्र-हारिभद्रीयटीका, पृ. 1