Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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44...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता के रूप में नन्दीरचना-विधि का उल्लेख किया है। पंचाशक प्रकरण में 'नन्दीरचना' ऐसा स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है, नामोल्लेखपूर्वक यह विधि सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा में प्राप्त होती है। किन्तु विषय निरूपण की दृष्टि से दोनों कृतियाँ प्राय: समान हैं।
आह्वानमन्त्र की अपेक्षा - पञ्चाशकप्रकरण (2/12) में ऐसा निर्देश है कि वायुकुमार आदि देवताओं का मन्त्रोच्चारपूर्वक आह्वान किया जाना चाहिए, किन्तु आह्वान योग्य मन्त्र कौन से हैं ? यह वर्णित नहीं है। जबकि विधिमार्गप्रपा में एक मन्त्र का उल्लेख कर शेष मन्त्रों के लिए सूचन कर दिया गया है।
दिक्पालस्थापना की अपेक्षा - आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचाशक प्रकरण में भूमिशुद्धि से लेकर चौमुखी प्रतिमा की स्थापना करने तक का ही उल्लेख है जबकि विधिमार्गप्रपा में प्रतिमा स्थापना के अनन्तर दश दिक्पालों का विधिपूर्वक आह्वान करने का भी निर्देश है। इसमें आह्वान के मन्त्र और दिक्पाल स्थापना की विधि भी दी गयी है। पंचाशकप्रकरण में दशदिक्पालों के आह्वान एवं स्थापन की कोई चर्चा नहीं है। इससे अनुमान होता है कि यह परवर्ती विकास है।
आजकल दशदिक्पाल के साथ नवग्रह की स्थापना भी की जाती है। नवग्रह स्थापना का उल्लेख अर्वाचीन संकलित कृतियों में उपलब्ध होता है। अनुमानत: विक्रम की 14वीं शती के बाद यह नन्दीरचना का अंग बना हो, ऐसा कहा जा सकता है।
जैन परम्परा में नवग्रह की अवधारणा विक्रम की 8वीं शती के बाद विकसित हो चुकी थी, किन्तु नन्दीरचना के आवश्यक कृत्य के रूप में इसकी अनिवार्यता परवर्तीकालीन सिद्ध होती है। उपसंहार
जैन धर्म की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा का यह सर्वमान्य अनुष्ठान है। इसे समवसरण रचना भी कहा जाता है। यह उत्तम पुरुषों के द्वारा प्रतिपादित
और उत्तम जनों के द्वारा आसेवित किये जाने वाला उपक्रम है। आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे महान ग्रन्थकार इस विधान के आद्य उल्लेखकर्ता हैं। नन्दीरचना मूलत: व्रत या तप इच्छुक साधक की मनोभूमि को तद्प मय बनाने एवं ग्रहण किये जा रहे व्रतादि के ध्येय को सार्थकता प्रदान करने के उद्देश्य से की जाती