Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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28...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता की सामग्री। • दश दिक्पाल एवं नवग्रह पूजन हेतु उतनी संख्या में पुष्प, धूप, दीप, पान, नैवेद्य, फलादि वस्तुएँ जैसे- 19 नग फूल, 19 नग पान, 19 नग फल, 19 नग नैवेद्य, 19 नग बादाम, 19 नग लवंग, 19 नग इलायची, 19 नग मिश्री के टुकड़े। • एक श्रावक पूजा के वस्त्र पहने हुए। • गुरु भगवन्त के स्थापनाचार्य रखने हेतु एक टेबल अथवा त्रिगड़े के समान तीन चौकियाँ।
उक्त सूची प्रचलित परम्परा के आधार पर दी गयी है। नन्दीरचना विधि का ऐतिहासिक विकास क्रम
नन्दी एक मंगलवर्द्धिनी रचना है। इसके माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में किसी प्रकार का आध्यात्मिक अनुष्ठान चाहे व्रत सम्बन्धी हो या तप सम्बन्धी, चाहे सूत्र ग्रहणादि से सम्बन्धित हो उसका प्रारम्भ करने हेतु तीर्थङ्कर परमात्मा का सान्निध्य आवश्यक है। इस पंचमकाल में साक्षात तीर्थङ्कर का अभाव होने से नन्दीरचना के द्वारा अरिहन्त प्रभु की परोक्ष छवि को आलम्बन बनाया जाता है।
ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि अद्यपर्यन्त कई आत्माएँ तीर्थङ्कर पुरुषों का प्रत्यक्ष या परोक्ष सान्निध्य प्राप्तकर संसार परिभ्रमण से मुक्त हुई हैं। नन्दी विधि के माध्यम से तीर्थङ्कर परमात्मा का परोक्ष आलम्बन स्वीकारा जाता है।
यदि नन्दीरचना विधि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक अवलोकन किया जाये तो जहाँ तक मूलागमों का प्रश्न है वहाँ नन्दी या नन्दीसूत्र इस प्रकार के नामोल्लेख के सिवाय अन्य किसी प्रकार का वर्णन प्राप्त नहीं होता है। यदि आगमेतर टीका साहित्य का अध्ययन करें तो नन्दीटीका, अनुयोगद्वारचूर्णि आदि में 'नन्दी' शब्द के व्युत्पत्ति अर्थ देखे जाते हैं। तद्व्यतिरिक्त इस विधि से सम्बन्धित कोई निर्देश पढ़ने में नहीं आया है। इस क्रम में मध्यकालीन ग्रन्थों का आलोडन किया जाये तो आचार्य हरिभद्रकृत पंचाशकप्रकरण (8वीं शती) और आचार्य जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा (14वीं शती) में प्रस्तुत विधि की चर्चा सुस्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है। इसके समकालीन अन्य ग्रन्थों में यह वर्णन नहीं पाया गया है। जहाँ तक उत्तरकालीन ग्रन्थों का प्रश्न है उनमें नन्दीरचना का उल्लेख मात्र मिलता है।
इस वर्णन के आधार पर कह सकते हैं कि आगम युग से लेकर वर्तमान