Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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2... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
है, वहाँ ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा यह सब सन्तुलित रहते हैं। ब्रह्मचर्य की साधना से अहिंसा,सत्य आदि सभी व्रतों को साधा जा सकता है। जहाँ साधु-साध्वी पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वहीं श्रावक के लिए भी मात्र स्वपत्नी में अपनी वासनाओं को सीमित करने से वीर्य शक्ति की हानि नहीं होती। इससे प्रमाद, कषाय एवं लोलुपता आदि कम होते हैं।
यदि वैयक्तिक स्तर पर ब्रह्मचर्य पालन के सुपरिणामों को देखा जाए तो इसके द्वारा चैतसिक प्रवृत्तियों एवं कायिक चेष्टाओं को संयमित किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य पालन से आन्तरिक शक्तियाँ विकासोन्मुखी बनती हैं। जैसे विद्यार्थी जीवन में बुद्धि एवं शक्ति का जो पराक्रम होता है, वह दाम्पत्य जीवन में नहीं रहता। स्वामी विवेकानन्द अपनी कुशाग्र बुद्धि का कारण ब्रह्मचर्य को ही मानते थे। विषय-वासना नियन्त्रित होने पर व्यक्ति का मन बाहर नहीं भटकता। जब गृहस्थ अपनी विषय-वासना को नियन्त्रित कर लेता है तो उसका जीवन सुख शान्तिपूर्ण एवं दाम्पत्य जीवन में कलह- द्वेष आदि उत्पन्न नहीं होता। इससे मैथुन प्रवृत्ति के दौरान होने वाली लाखों सम्मूर्च्छिम जीवों की हिंसा के दोष से भी बचते हैं। ब्रह्मचारी की वाणी सन्तुलित होने से उसे वचन सिद्धि भी प्राप्त होती है।
यदि सामाजिक सन्दर्भ में ब्रह्मचर्य की श्रेष्ठता का परिशीलन करें तो हमारे भारतीय समाज और संस्कृति की आधारशिला ब्रह्मचर्य ही है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जिसका जैसा आचरण हो, वह उस तरह का उपदेश दें तो श्रोताओं पर अधिक प्रभावी होता है इसीलिए ब्रह्मचारी के उपदेश से समाज संयमित एवं मर्यादित बनता है।
यदि ब्रह्मचर्य का प्रभाव प्रबन्धन के क्षेत्र में देखें तो समाज प्रबन्धन, क्रोध प्रबन्धन, काम-वासना प्रबन्धन आदि के क्षेत्रों में यह व्रत बहुपयोगी है । ब्रह्मचर्य के द्वारा व्यक्तिगत जीवन में सुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, बाह्य प्रवाह आन्तरिक बनकर ऊर्ध्वारोहित होता है जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक एवं भौतिक जगत् दोनों में प्रगति करता है। इसी के साथ मैथुन क्रिया एवं उसके विकल्पों में व्यर्थ जाने वाले समय की भी बचत होती है।
सामाजिक स्तर पर ब्रह्मचर्य पालन या मैथुन विरमण के माध्यम से समाज को एक सही दिशा दिखायी जा सकती है। इस युग में संस्कृति को धूमिल कर रही दुष्प्रवृत्तियाँ जैसे अत्याचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, स्वेच्छाचार आदि से