Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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क्षुल्लकत्वग्रहण विधि की पारम्परिक अवधारणा... 21
यदि श्रमण और वैदिक धर्म की अपेक्षा इस विधि का आकलन करें तो श्वेताम्बर के मूर्तिपूजक एवं दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं में क्षुल्लक दीक्षा का अस्तित्व पूर्व विवेचन से स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। श्वेताम्बर संघ की अन्य परम्पराओं स्थानकवासी, तेरापंथी आदि से सम्बन्धित साहित्य में यह विधि लगभग नहीं है, किन्तु उनमें श्रमणभूत प्रतिमा के उल्लेख हैं। वैदिक अथवा बौद्ध परम्परा में भी इस संस्कार का अभाव ही है। यद्यपि वैदिक परम्परा की वानप्रस्थ अवस्था से तथा बौद्ध परम्परा की श्रामनेर दीक्षा से इसका आंशिक साम्य माना जा सकता है।
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उपसंहार
‘यति आचार दुष्पालनीय एवं कठिन है' अतः इस आचार का सम्यक् परिपालन करने हेतु क्षुल्लक दीक्षा स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है। यह मुनि जीवन में प्रवेश करने की पूर्व भूमिका रूप है। इस प्रक्रिया के माध्यम से क्षुल्लक को पंच महाव्रतों के पालन एवं मुनि जीवन की दैनन्दिन चर्याओं का सम्यक अभ्यास करवाया जाता है ताकि वह प्रव्रज्या एवं उपस्थापना के पश्चात भी उनका निर्दोष रूप से परिपालन कर सके।
भारतीय संस्कृति में शिक्षा के दो प्रकार हैं 1. ग्रहणात्मक और 2. आसेवनात्मक। इसे वर्तमान भाषा में सैद्धान्तिक और प्रयोगात्मक शिक्षा भी जा सकता है। आचारपक्ष को सबल बनाने हेतु उक्त दोनों प्रकार का प्रशिक्षण आवश्यक है। क्षुल्लक को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक दोनों तरह का प्रशिक्षण दिया जाता है, यही इस संस्कार की उपयोगिता है।
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दूसरे, तीन वर्ष के अभ्यासकाल में वह स्वयं के मनोबल एवं आत्मबल का परीक्षण कर मुनि जीवन में प्रवेश करने या नहीं करने के निर्णय पर भी पहुंच जाता है। तीसरे, क्षुल्लक जीवन अभ्यस्त मुनि के लिए महाव्रतों एवं संयम का पालन सरल होता है। वस्तुतः पूर्व अभ्यस्त व्यक्ति ही अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। अभ्यास, सफलता का प्राथमिक द्वार है । फिर अध्यात्म जैसे कठिन मार्ग का यथावत् अनुसरण बिना अभ्यास के असम्भव है। इस प्रकार क्षुल्लक दीक्षा की अनेक दृष्टि से उपयोगिता है। वर्तमान की श्वेताम्बर - परम्परा में यह व्यवस्था प्रायः लुप्त हो गयी है, किन्तु दिगम्बर आम्नाय में आज भी इसका अस्तित्व अक्षुण्ण है । यद्यपि उसमें भी मध्यकाल में इसका प्रायः अभाव