Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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अध्याय-2
क्षुल्लकत्वग्रहण विधि की पारम्परिक अवधारणा
जैन धर्म आचार प्रधान है। गृहस्थ धर्म का समुचित निर्वाह करने वाला व्यक्ति सदाचार की नींव को सुदृढ़ बनाये रखे, इस उद्देश्य से अर्हत् धर्म में साधना की अनेक विधियों का प्रतिपादन है । आचार पालन की दृष्टि से ब्रह्मचर्य दीक्षा, क्षुल्लक दीक्षा, प्रव्रज्या ( सामायिक चारित्र), उपस्थापना ( छेदोपस्थापना चारित्र) आदि भूमिकाएँ क्रमश: उच्च- उच्चतर हैं।
यदि गृहस्थ व्रती को सर्वविरति धर्म अंगीकार करना हो, प्रव्रज्यामार्ग पर आरूढ़ होना हो तो ब्रह्मचर्यव्रत पालन के पश्चात क्षुल्लक प्रव्रज्या ग्रहण करें। यह प्रव्रज्या के पूर्व का साधना काल है। इसके माध्यम से उसे मुनि दीक्षा हेतु परिपक्व बनाया जाता है। श्वेताम्बर मतानुसार प्रव्रज्या इच्छुक को सर्वप्रथम तीन वर्ष के लिए ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करना चाहिए, फिर तीन वर्ष के लिए क्षुल्लक दीक्षा धारण करनी चाहिए, उसके बाद प्रव्रज्या स्वीकार करके फिर उपस्थापना ग्रहण करनी चाहिए। यह क्रम व्रताभ्यास एवं निर्दोष आचरण को लक्ष्य में रखते हुए बतलाया गया है।
श्वेताम्बर- दिगम्बर दोनों परम्पराओं में क्षुल्लक दीक्षा अंगीकार की विधि प्राप्त होती है, किन्तु विधि-क्रिया और आवश्यक नियमों में परस्पर वैविध्य है। क्षुल्लक के विभिन्न अर्थों की मीमांसा
क्षुल्लक का शब्दकोशीय अर्थ है - छोटा। छोटे साधु को क्षुल्लक कहते हैं। यह जैन आम्नाय का पारिभाषिक शब्द है ।
अमरकोश में क्षुल्लक के निम्न अर्थ बतलाये गए हैं। - विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत, पृथग्जन, निहीन, अपसद, जाल्म आदि । किन्तु जैन परम्परा में क्षुल्लक शब्द इससे भिन्न अर्थ में गृहीत है और यहाँ क्षुल्लक शब्द ही अभिप्रेत है। प्राचीनकाल में यावज्जीवन सामायिक चारित्र अंगीकार करने वाले को क्षुल्लक कहा जाता था। वर्तमान में प्रव्रज्या इच्छुक भाई-बहनों को सर्वप्रथम