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प्राक्कथन
मिलता है। इन ऋषियों के दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विचार मानवजाति के लिए दिग्बोधक हैं।
जैनदर्शन को उमास्वाति, कुन्दकुन्द, सिद्धसेन, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि, हरिभद्र, अकलङ्क, विद्यानन्द, शीलाक, अभयदेव, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, वादिदेव, मलयगिरि, यशोविजय आदि अनेक आचार्यों ने अपनी कृतियों से समृद्ध बनाया है। जैनदर्शन को प्रथम बार संस्कृत-सूत्रों में निबद्ध करने वाले दार्शनिक उमास्वाति की दो कृतियों तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरतिप्रकरण की प्रस्तुत पुस्तक में तुलना की गई है, जिससे अनेक नूतन तथ्य उद्घाटित हुए हैं। जीवादि नव तत्त्वों में पुण्य-पाप तत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता पर भी विचार किया गया है। ___जैनदर्शन का वैशिष्ट्य अन्य धर्म-दर्शनों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर विदित होता है। वैदिक एवं बौद्ध परम्परा के चिन्तन से जैनदर्शन का चिन्तन किन बिन्दुओं एवं किन आधारों पर भिन्न है, यह अध्ययन जैनदर्शन की विशेषताओं एवं समानताओं को उजागर करता है। एक- दूसरे दर्शन पर वैचारिक प्रभाव का भी इससे बोध होता है। प्रस्तुत पुस्तक में बौद्ध एवं जैन परम्परा तथा वैदिक एवं जैन परम्परा के चिन्तन पर भी तुलनात्मक विचार किया गया है। जैनपरम्परानुसार वीतरागता एवं भगवद्गीता के संदर्भ में स्थितप्रज्ञता की अवधारणा के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि इन दोनों में परस्पर कितना साम्य है तथा कितना भेद है। उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित वीतरागता हमें समतारूप साधना के रूप में ज्ञात होती है, जो भगवद्गीता की स्थितप्रज्ञता से साम्य रखती है। कषाय का पूर्ण क्षय होने पर जो वीतरागता प्राप्त होती है वह जैनदर्शन में साध्यरूप है, गीता में उसे ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। ___ एक ही धराभाग पर पल्लवित पुष्पित होने के कारण वैदिक एवं जैन परम्परा में अन्तःसम्बन्ध रहा है तथा परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान भी हुआ है। इसकी कुछ चर्चा पुस्तक के “जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध" आलेख में हुई है। जैन और बौद्ध दोनों धर्म-दर्शन श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। दोनों की 'श्रम' अर्थात् 'पुरुषार्थ' में आस्था है। दोनों ने जगत् का स्रष्टा ईश्वर को नहीं माना है। बुद्ध एवं महावीर दोनों का विचरण क्षेत्र प्रायः समान ही रहा तथा दोनों ने जनसमुदाय को लोकभाषा में सम्बोधित कर अपनी-अपनी दृष्टि से मुक्ति