Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 15
________________ xiii प्राक्कथन मैत्रीभाव के विकास की आवश्यकता है। हिंसा से कभी हिंसा की शुद्धि नहीं होती। इसलिए अहिंसा ही मानवजाति के लिए हितावह है। जैनदर्शन में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रसकायिक जीवों की रक्षा द्वारा पर्यावरण-संरक्षण तथा हिंसा को न्यूनतम करने का संदेश प्राप्त होता है। ___ अपरिग्रह का सिद्धान्त जहाँ ममत्व एवं आसक्ति को तोड़ने में सहायक है वहाँ वह सतत आर्थिक विकास एवं समृद्धि का भी सूत्रपात करता है। परिग्रह की लालसा के कारण दूसरे के प्रति संवेदनशीलता का समापन एवं क्रूरता का प्रवेश हो जाता है। स्वहित के प्रति अनभिज्ञता बढ़ती है तथा धन-सम्पदा आदि के समक्ष मानवता का दृष्टिकोण भी फीका पड़ जाता है। अपरिग्रही होने का तात्पर्य निर्धन या दरिद्र होना नहीं, अपितु पर पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग करना ही अपरिग्रही होना है। मनुष्य को संगृहीत पदार्थ के प्रति स्वामित्व की अभिलाषा नहीं, अपितु सदुपयोग का भाव रखना चाहिए। जो इच्छाओं को अल्प कर लेता है वह स्वयं भी सुखी हो जाता है तथा दूसरों के लिए भी वस्तुओं की उपलब्धि में सहयोगी हो जाता है। अपरिग्रह का विचार योगसूत्र में भी हुआ है तथा प्रकारान्तर से अपरिग्रह का विचार विश्व के अनेक विचारकों से पुष्टि प्राप्त कर चुका है। जैनदर्शन में परिग्रह को बन्धन एवं पराधीनता का कारण माना गया है, जबकि अपरिग्रह को सुख एवं शान्ति का साधन। ___ आर्थिक विकास की दौड़ में परिग्रह का परिमाण करना एक कठिन कदम है, किन्तु तृष्णा एवं लालसा के क्षितिज का अन्त कहीं नहीं आता। फलतः दुःख का अन्त नहीं होता। दुःख का अन्त करने के लिए परिग्रह का परिमाण एक उपयोगी एवं आवश्यक कदम है। अर्थ का विकास ही विकास नहीं है, शिक्षा, संस्कृति एवं सोच का विकास भी आवश्यक है। मनुष्य आज अधिकाधिक वस्तुओं का भोगोपभोग करना चाहता है, जिससे प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित होता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए जैन धर्म में मनुष्य को भोग-उपभोग की वस्तुओं का परिमाण करने की शिक्षा दी गई है। वह जितना भोग्य वस्तुओं का सीमांकन करेगा उतना ही प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन रुकेगा एवं स्वयं भी पराधीनता के दुःख से बच सकेगा।

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