Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सांव्यवहारिक ये दो भेद किए तथा परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम का व्यवस्थापन किया। जैन न्याय में जब ज्ञान को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित किया गया तो प्रश्न उठा कि क्या मतिज्ञान का भेद अवग्रह भी प्रमाण है? प्रमाण को निश्चयात्मक ज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है, जबकि अवग्रह ज्ञान सामान्यग्राही होता है । निश्चयात्मकता उसके पश्चात् होने वाले ईहाज्ञान में भी नहीं होती, स्पष्टतः अवाय ज्ञान में होती है। इस विषय पर दार्शनिकों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अवग्रह के एक भेद अर्थावग्रह को कंथचित् प्रमाण माना जा सकता है, किन्तु उसके अन्य भेद व्यंजनावग्रह को नहीं । xii नय भी ज्ञानात्मक होता है, किन्तु उसे प्रमाण का अंश माना गया है। नय एक प्रकार से जानने का एक दृष्टिकोण है, जिसका प्रतिपादन जैन दर्शन की विशेषता है। अन्य दर्शनों में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूतइन सात नयों का उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए नयों का प्रतिपादन भी जैनदर्शन की विशेषता को इंगित करता है। नयों के द्वारा जाना भी जाता है एवं अभिव्यक्ति भी की जाती है। किसी अपेक्षा से जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय हैं। नय की भाँति निक्षेप भी जैन दर्शन का विशिष्ट शब्द है । नय के द्वारा जहाँ वाक्यों का अर्थ ग्रहण किया जाता है वहाँ निक्षेप के द्वारा शब्दों का अर्थ ग्रहण किया जाता है। आचारमीमांसा की दृष्टि से भी जैन धर्म-दर्शन समृद्ध है। इसमें अहिंसा का जैसा सूक्ष्म एवं तार्किक विवेचन हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रायः यह समझा जाता है कि हिंसा पाप है, कर्मबन्ध की हेतु है, इसलिए हिंसा त्याज्य है, किन्तु जैन आगमों में हिंसा-त्याग के अन्य कारण भी दिए गए हैं। वहाँ सभी प्राणियों के जीने की अभिलाषा के प्रति आदर एवं उनके प्रति संवेदनशीलता को गहरा किया गया है। हिंसा को अहित एवं अबोधि का सूचक बताया गया है। अहिंसा न केवल व्यक्तिगत हित का दर्शन है, अपितु यह समाजदर्शन के रूप में भी उभर कर आती है। हिंसा का त्याग आध्यात्मिक दृष्टि से जितना उपादेय है उतना ही सामाजिक दृष्टि से भी । जिस प्रकार मुझे अपना आयुष्य प्रिय है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी उनका जीवन एवं आयुष्य प्रिय है। किसी भी प्राणी का शोषण नहीं किया जाना चाहिए किसी को भी गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए। सबके प्रति आत्मवद्भाव एवं

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 508