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आचार्य तुलसी, लाडनू (१) अधोभाग- आंख का गड्ढा, गले का गड्ढा, मुख के बीच का भाग। (२) ऊर्ध्वभाग-----घुटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग। (३) तिर्यग्भाग--समतल भाग |
शरीर को समग्र दृष्टि से देखने के लिए शरीर-विपश्यना का निर्देश है- "आयतचकवू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उइढं भागं जाणइ, तिरिय भागं जाणइ''
शरीर-विपश्यना का अर्थ है-शरीर में होने वाले सुख-दुःख आदि पर्यायों या परिणमनों का अनुभव करना । भगवान् महावीर ने अप्रमत्त रहने के उपाय बतलाए । उनमें शरीर के पर्याय और संवेदनों को देखना मुख्य उपाय है । जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होनेवाली सुख-दुःख की वेदना को देवता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है।
यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । सामान्यतः बाहरकी ओर प्रवाहित होनेवाली चैतन्य की धाराको अन्तर की ओर प्रवाहित करनेका प्रथम साधन स्थूल शरीर है । इम स्थूल शरीर के भीतर तेजस् और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं और संवेदनों को देखने का अभ्यास करनेवाला क्रमशः तेजसू और कर्म शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होनेवाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे बढ़ता है वैसे वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है।
१. आयारो २ । १२५
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