Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
View full book text
________________
दान का महत्त्व और उद्देश्य
"इस जीवन का लक्ष्य नहीं है, विश्रान्ति भवन में टिके रहना। - - किन्तु पहुंचना उस मंजिल पर, जिसके आगे राह नहीं।"
मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? और लक्ष्य के अनुकूल प्रमुख कार्य क्या है ? अपना स्वरूप क्या है ? अपना असली स्थान कहाँ है ? इसका जिस मानव-व्यापारी को पता नहीं, वह लक्ष्यविहीन होकर फुटबाल की तरह इधर से उधर चक्कर काटता रहता है ?
आचाराङ्गसूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि बहुत से जीवों को यह पता ही नहीं होता कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ, पश्चिम दिशा से आया हूँ, उत्तर दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ ? मुझे कहा जाना है ? क्या करना है ? यह वे नहीं जानते ।"
कवि श्रीमद् राजचन्द्रजी के शब्दों में कहे तों -
"हुँ कोण छू ? क्या थी थयो ? शुं स्वरूप छे मारूं खरूं? कोना सम्बन्धे वलगणा छे ? राखं के ए परिहरूं? लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो ? शुं कुटुम्ब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहे वधवापणुं संसार- नर देह ने हारी जवो,
ऐनो विचार नहीं अहो हो, एक पल तमने हवो !" इन पंक्तियों का भाव स्पष्ट है। अधिकांश मनुष्यों को यह पता भी नहीं है कि वै कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? कहाँ से या किस पुण्यकर्म से वे मनुष्य बने हैं ? उनके मनुष्य जन्म पाने के पीछे क्या रहस्य है ? ज्यादा पूछने पर वे यह कह देते हैं - हम अमुक माता-पिता से पैदा हुए हैं; अमुक खानदान के हैं, अमुक वंश और कुल के हैं अथवा अमुक देश या नगर से आकर यहाँ बसे हैं! उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि वे मनुष्य गति से, तिर्यंचगति से, देवगति से या नरकगति से आये हैं ? कदाचित् वे शास्त्रों से सुनकर या किसी सन्मार्ग दर्शक गुरु के बता देने पर कुछ बातें यथार्थ बता देते हैं, लेकिन उनके दिल-दिमाग में या संस्कारों में असली बात नहीं जम पाती। कई लोगों को अपने स्वरूप का भान नहीं रहता । वे मनुष्य जन्म पाकर भी अपने आत्मगुणों या अहिंसादि गुणों १. आचाराङ्ग १।१।१