Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद
१९१ दुःख समझता है।
एक बौद्ध भिक्षु एक भूखे व्यक्ति को दयाधर्म का उपदेश दे रहा था । पर वह व्यक्ति उसकी एक भी बात ध्यानपूर्वक नहीं सुन रहा था। उसकी इस उपेक्षा से क्रुद्ध होकर वह भिक्षु उसे तथागत बुद्ध के पास लेकर पहुंचा । उस भिक्षु की बात सुनकर बुद्ध मुस्कराए और कहने लगे – 'इसे मैं स्वयं उपदेश दूंगा।" म.बुद्ध ने उस भिक्षु से कहा - "इसे ले जाकर पहले पेट भर भोजन कराओ।" उस बुभुक्षित व्यक्ति के पेट में अन्न पहुंचते ही वह जिज्ञासु बनकर बुद्ध के पास बैठ गया। परन्तु भिक्षु को उपदेश की उतावल थी। उसने म. बुद्ध से कहा - "भंते ! आपने इसे उपदेश कहाँ दिया ?" बुद्ध - "उपदेश तभी दिया जाता है, जब पेट में अन्न पड़ा हो।" म. बुद्ध ने आगन्तुक को उपदेश दिया, जिसे बड़ी उत्सुकता से उसने सुना और गद्गद होकर चला गया । ... यद्यपि अलौकिक आहार दान में यह अवश्य देखा जाता है कि देय वस्तु न्यायोपार्जित एवं कल्पनीय हो । तत्त्वार्थसूत्र भाष्य में स्पष्ट कहा है - . "न्यायागतानां कल्पनीयनामन्नपानादीनां द्रव्याणां.... दानम् ।"
... परन्तु लौकिक आहारदान में भी यह विवेक तो अवश्य करना होगा कि वह अन्न न्यायनीति से प्राप्त हो । किन्तु यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि दुष्काल आदि संकट के समय में अगर आवश्यकतानुसार अन्नदान न हो तो उस प्रदेश में लूट, चोरी, अनीति आदि अराजकता फैलने की आशंका रहती है। इसीलिए समाज से धर्मपालन कराने एवं समाज को स्वच्छ व स्वस्थ रखने के लिए 'आहारदान' सर्वप्रथम आवश्यक बताया गया है। इस दृष्टि से अन्नसत्र या सदाव्रत खोलने वाले भी भूखे व्यक्तियों के अन्तर का आशीर्वाद लेकर महान् पुण्य का उपार्जन करते हैं।