Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद
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करते थे। लिखने वाले भी बहुत कम थे और श्रद्धालु सम्पन्न श्रावक ही उन्हें लिखाते थे और श्रमण-श्रमणियों या मुनि-आर्यिकाओं को अत्यन्त श्रद्धा से देते थे। इसीलिए शास्त्रदान के रूप में ज्ञानदान का लक्षण आचार्य वसुनन्दी ने किया
- जो आगम, शास्त्र आदि लेहियों (लिपिकारों) से लिखवाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवाणी का अध्ययन कराना-पढ़ाना भी शास्त्रदान है। शास्त्रदान ज्ञानदान का ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। जिस युग में ताड़पत्र या भोजपत्र पर लिखित शास्त्र या आगम बहुत ही कम उपलब्ध होते थे, तब कोई भी श्रद्धालु श्रावक अपने श्रद्धेय गुरुजनों को लेखकों से लिखाए हुए शास्त्र इसलिये देते थे कि हमारे गुरुवर इस शास्त्र का अध्ययन, मनन, चिन्तन करके तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जानेंगे, दूसरों को व्याख्यान, उपदेश आदि द्वारा वस्तु का यथार्थस्वरूप समझायेंगे । इसलिए शास्त्रदान देने वाला बहुत ही पुण्योपार्जन तथा कर्म निर्जरा कर लेता था । ज्ञान और खासकर शास्त्रज्ञान के बिना साधु का जीवन अँधेरे में रहता है, वह स्वयं संशय और मोह में पड़ा रहता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में बताया है - "आगमचक्खू साहू।" - साधु का नेत्र आगम होता है। शास्त्रज्ञान पाकर ही वह तत्त्व निर्णय कर पाता है। इसलिए शास्त्रदान ज्ञानदान का एक विशेष रूप है। क्योंकि शास्त्र भी ज्ञान को प्रादुर्भूत करने का एक विशिष्ट साधन है।
गृहस्थ में ज्ञानदान, शास्त्रज्ञान देनेवाले विरले व्यक्ति होते हैं ऐसा विरल व्यक्तित्व जिनका भाग्य से मुझे सान्निध्य मिला हुआ है उनका नाम है अहमदाबाद के पूज्य सुनंदाबहेन वोहोरा । वे स्वयं शास्त्रज्ञ है और शास्त्र लेखक भी। वे कई वर्षों से नि:स्पृह भाव से ज्ञानदान दे रहे हैं। करीबन २० वर्ष तक उन्होंने विदेशों में जाकर वहाँ पर बसनेवाले लोगों को धर्मशास्त्र तथा धर्मग्रन्थों (नवतत्त्व, तत्त्वार्थ, कर्मग्रन्थ आदि) का अध्ययन कराया। काफी धर्मग्रन्थों तथा धर्मशास्त्रों का सरल भाषा में गुजराती अनुवाद किया । ८० से ऊपर किताबें लिखकर जनता को शास्त्रज्ञान दे रहे हैं । अहमदाबाद में तत्त्वज्ञान के लिए धार्मिक वर्ग
१. आगम-सत्थाई लिहाविऊण दिज्जति जं जहाजोग्गं ।
तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा ॥२३७ - वसुनन्दी श्रावकाचार