Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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. दान : अमृतमयी परंपरा
३. दाता के गुण :
दाता में कौन-कौन से गुण होने चाहिए ? इसके लिए आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में निम्नलिखित श्लोक द्वारा दाता के विशिष्ट गुण बताए हैं -
"एहिकफलानपेक्षा, शान्तिनिष्कपटताऽनसूयत्त्वम् ।
अविषादित्व-मुदित्वे निरहंकारित्वमिति दातृगुणाः ॥"
- इहलोक सम्बन्धी किसी फल की इच्छा न करना, क्षमा, निष्कपटता, अनुसूयता, अविषादिता, मुदिता, निरहंकारिता; ये ७ गुण दाता में होने चाहिए।
(१) फलनिरपेक्षता - दाता में सबसे पहला गुण होना चाहिए - फलाकांक्षा से रहितता । दान के साथ किसी स्वार्थ या प्रसिद्धि, धन, पुत्र या अन्य किसी बात की लालसा दाता में नहीं होनी चाहिए, तभी उसके दान में विशेषता पैदा होती है। अत: किसी प्रकार के बदले की आशा से रहित होकर निष्कांक्ष भाव से ही दान करना चाहिए । कहा भी है -
"ब्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यापारे तु चतुर्गुणम् ।
क्षेत्रे शतगुणं ज्ञेयं, दाने चानन्तगुणं मतम् ॥"
- लगाया हुआ द्रव्य ब्याज से दुगुना हो जाता है, व्यापार में चौगुना हो जाता है, खेती में सौ गुना और दान में - सत्पात्र में दान देकर लगाया हुआ द्रव्य अनन्त गुना हो जाता है।
अतः दाता को ऐसे अनन्त गुने लाभ देने वाले दान को तुच्छ वस्तु की वांछा के बदले में बेचकर नष्ट नहीं करना चाहिए। - (२) क्षमाशीलता - दाता याचक के आते ही झुंझलाए नहीं, धैर्य न खोए, उसे क्षमाशील बनकर धैर्य से सभी प्रकार के पात्रों को यथायोग्य देना चाहिए । अगर वह उत्तम पात्र (साधु-साध्वी) को ही दान देने का आग्रही बनकर कोई मध्यम पात्र श्रावक आदि आ जाते हैं या करुणा पात्र आ जाते हैं, उनको असहिष्णु बनकर डॉट-फटकार कर निकाल देता है, यह उसके लिए शोभास्पद नहीं । अतः सहनशील बनकर पात्रानुसार उसे दान धर्म करते रहना