Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 327
________________ २८८ दान : अमृतमयी परंपरा यही हाल पूणिया श्रावक का था। वह कुछ ही पैसे रोज कमाता था और उसी से पति-पत्नी निर्वाह करते थे। जिस दिन कोई अतिथि आ जाता तो उसके आतिथ्य में सब कुछ व्यय करके स्वयं पति-पत्नी उपवास कर लेते थे। एक बार कहीं दुष्काल पड़ा तो वहाँ के दुष्काल पीड़ितों के लिए चन्दा होने लगा । चन्दा करने वाले ईसामसीह थे । इसलिए उनके व्यक्तित्व को देखकर लोग बड़ी-बड़ी रकमें देने लगे । एक बुढ़िया ने बड़ी भावना से दुष्काल पीडित सहायक फंड में अपना सर्वस्व बचत - एक पैसा दे दिया । ईसा ने बड़े प्रेम से उससे पैसा लेकर उपस्थित जनता को सम्बोधित करते हुए कहा – “बन्धुओं ! यद्यपि तुम सबने हजारों-लाखों रुपये दिये हैं, लेकिन इस बुढ़िया के दिये हुए पैसे की तुलना नहीं कर सकते । क्योंकि तुमने तो थोड़ा देकर बहुत-सा अपने पास रखा है, जबकि इसने तीन पैसे रोज की कमाई और तीन ही पैसे के खर्च में कतरब्योंत् करके एक पैसा दिया है। इस्लाम धर्म के कुछ लोगों ने अपनी तंगी हालत में भी अपने पास जो कुछ था, वह गरीबों के लिए दे डाला था। इसलिए दानविधि में और सब कुछ देखने की अपेक्षा सबसे अधिक ध्यान दाता की भावना, आस्था, श्रद्धा और भक्ति पर ही दिया जाना चाहिए। ऐसी दशा में वह तुच्छ दान भी महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान होकर चमक उठेगा।

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