Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दानमहिमागर्भितं श्री दान कुलकम्
२९१
अर्थ
समस्त राज्यऋद्धि का त्याग किया । संयम का एक अति कठिन भार वहन किया और दीक्षा लेते समय इन्द्र महाराजा द्वारा स्थापन किया हुआ देवदूष्यवस्त्र भी कंधे से उतारकर जिन्होंने दान में दे दिया वे श्री वीरप्रभु
जयवंत हो ॥१॥ २. जगत में धर्मदान, अर्थदान और कामदान - ये तीन प्रकार के दान प्रसिद्ध
है, फिर भी जिनेश्वर प्रभु के मुनिओं धर्म के दान की ही प्रशंसा करते हैं
॥२॥ ३. दान सौभाग्य को करनेवाला है, दान आरोग्य का परम कारण है, दान भोग . का निधान और दान अनेक गुणसमूह का स्थान है ॥३|| ४. दान करने से निर्मल कीर्ति बढ़ती है, दान से निर्मल कांति बढ़ती है और · दान से वश हुआ हृदयवाला दुश्मन भी देने वाले के घर पानी भरता है
॥४॥ ५. धनसार्थवाह के भव में उत्तम साधओं को घी का दान किया था. जिससे
ऋषभदेव भगवान तीन लोक के पितामह (नाथ) हुए ॥५॥ ६. दसवें भव में (पूर्व के तीसरे भव में) करुणा से पारेवा को अभयदान
दिया और जन्मांतर में जिन्होंने ये पुण्य करियाणु खरीद लिया, वे श्री शांतिनाथ प्रभु भी अंतिम भव में तीर्थंकर की और चक्रवर्ती की ऋद्धि
प्राप्त की ॥६॥ ७. पांचसौ साधुओं को भोजन लाकर देने से जिन्होंने विशिष्ट (निकाचित)
पुण्य बांधा था जिससे जिनका चरित्र आश्चर्यकारक है ऐसे भरत राजा संपूर्ण
भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती राजा हुए ॥७॥ ८. कोढ रोगवाले ग्लान मुनि को औषध में उपयोगी वस्तुएँ (बावनाचंदन
और कंबल) बिना मुल्य के देने मात्र से रत्नकंबल और बावनाचंदन का व्यापारी उसी भव में सिद्धि को प्राप्त किया ॥८॥