Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की निष्फलता के कारण व भाव दान का स्वरूप
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विर्तक करके लेने वाले को कायल करके दान देना, दान के वैमुख्य नामक दोष के अन्तर्गत है। इस प्रकर देना प्रसन्नचित्त से, हर्षपूर्वक देना नहीं है। इससे दान का बाग सूख जाता है । इस सम्बन्ध में बुद्ध के जीवन का एक प्रसंग अत्यन्त प्रेरणादायक है।
एक बार तथागत बुद्ध अपने संघसहित कौशल में पधारे । वहाँ एक जमींदार ने उन्हें भोजन के लिए ससंघ आमन्त्रित किया । भोजन के बाद वह बुद्ध सहित सब लोगों को अपने बाग की सैर कराने ले गया। बाग बहुत बड़ा और सुन्दर था। उसके बीचो बीच एक बड़ा-सा स्थान था, जहा एक भी पेड़ नहीं था। संघ के लोगों ने जमींदार से पूछा- "अजी! क्या बात है? इस स्थान पर एक भी पेड़ क्यों नहीं लगाया गया ?" जमींदार ने नम्रतापूर्वक कहा - "महात्मागण ! बात यह थी कि जिन दिनों यह बाग लगाया जा रहा था, उन दिनों मैंने एक लड़के को वृक्षों को सींचने के लिए नियुक्त किया था। पहले तो वह सब वृक्षों को एक समान पानी देता रहा । बाद में उसने सोचा-इससे क्या लाभ ? जिस पौधे की जड़ जितनी लम्बी हो, उसे उतना ही कम पानी दिया जाय, यही बेहतर रहेगा। अतः वह सिंचाई से पहले प्रत्येक पौधे की जड़ उखाड़कर उसकी लम्बाई देखता, तत्पश्चात् उसे पुनः गाड़कर उसी अनुपात में उस पौधे को पानी देता। परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में सभी पौधे सूख गए। इसी कारण इस जगह कोई पेड़ नहीं रा । मैंने उस जड़ उखाड़कर देखने वाले लड़के को निकाल दिया।" इस पर महात्माबुद्ध ने उपस्थित जमींदार, उसके कर्मचारी एवं अपने संघ के लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा - "जिस प्रकार बार-बार जड़ें उखाड़ने से पेड़ सूख गए, हरा-भरा बाग सूख गया, उसी प्रकार दान देते समय भी तर्क-वितर्क या ज्यादा पूछाताछी नहीं करनी चाहिए । सहज भाव से, अपनी शक्ति अनुसार जिसको जो कुछ देना हो तुरन्त दे डालिए । अधिक विकल्पजाल या विचारों की उधेड़बुन में पड़ने से दान का बाग सूख जाता है। एक जैनाचार्य ने तो स्पष्ट कहा है -
- दान देते समय इभ्य श्रेष्ठियों को पात्र-अपात्र की चिन्ता करने से क्या
१. दानकाले महेभ्यानां किं पात्रापात्रचिन्तया ।
दीनाय देवदूष्यार्द्धं यथाऽदात् कृपया प्रभुः ।