Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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. दान : अमृतमयी परंपरा
(६) मुदिता - दाता के हृदय में दान देने का उत्साह एवं उल्लास होना चाहिए । पात्र को देखते ही दाता के मन में उत्साह की बिजली चमक उठे, वह तुरन्त प्रसन्न होकर सोचे- मेरा अहोभाग्य है, ऐसे महान् पुरुष स्वयमेव पधारकर मेरा घर पावन कर रहे हैं । दान ग्रहण कर मेरा द्रव्य सार्थक करते हैं। मुझे तारने के लिये घर बैठे यह धर्मजहाज आई है। अगर ये नहीं पधारते, तो मेरी सम्पत्ति या साधनों का क्या उपयोग होता? जितना पात्र में पड़ जाय, उतना ही द्रव्य मेरा है, बाकी का द्रव्य या तो यहीं पड़ा रहेगा या दूसरे लोग मालिक बन जाएगे । अतः प्राप्त द्रव्य का सुलाभ लेने का यही उत्तम अवसर मेरे हाथ लगा है। इस प्रकार चढ़ते परिणामों से दान दे।
(७) निरहंकारिता - दाता को निरभिमानी होना चाहिए । तीर्थंकर दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष में ३ अरब ७४ करोड ४० लाख स्वर्ण-मुद्राएँ दान देते हैं, ऐसे दानेश्वरियों के सामने मैं किस विसात में हूँ ? मेरा तो जरा-सा तुच्छ दान है । मैं क्या दे सकता हूँ? इत्यादि विचारों से अहंकारशून्य होकर दान दे । कई बार दाता का अहंकार दान का मजा किरकिरा कर देता है। जबकि दाता की नम्रता दान को विशिष्ट फलवान बना देती है।
दाता में ये सात विशिष्ट गुण होने चाहिए। महापुराण में दानपति (श्रेष्ठदानी) के सात गुण इस प्रकार उपलब्ध है।
- श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और त्याग । श्रद्धा कहते हैं - आस्तिक्य को । आस्तिक बुद्धि न होने पर दान देने में अनादर हो सकता है। दान देने में आलस्य न करना शक्ति नामक गुण है। पात्र के गुणों के प्रति आदर करना भक्ति नामक गुण है। दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना – विधि या कल्प्याकल्प, एषणीय - अनैषणीय, प्रासुक-अप्रासुक का ज्ञान होना विज्ञान है । दान के प्रति किसी प्रकार की फलाकांक्षा न रखना अलुब्धता है । सहनशीलता होना क्षमा नामक गुण है और दान में उत्तम द्रव्य देना त्याग है। इस प्रकार जो दाता उपर्युक्त सात गुणों से युक्त है और निदानादि दोषों से रहित होकर पात्ररूपी सम्पदा में दान देता है, वह दाता मोक्ष-प्राप्ति के
१. श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानंचाप्यलुब्धता।
क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दानपतेर्गुणाः ।। – महापुराण २०/८२