Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा पुण्य भी । जैसे व्रती, संयती आदि को दान देना, उनकी सेवा करना धर्म है, इससे संवर तथा निर्जरा रूप धर्म की वृद्धि होती है। अशुभ कर्म का निरोध होना संवर है, बँधे हुए अशुभ कर्मों का क्षय होना निर्जरा है और नये शुभ कर्म का बंधना पुण्य है। इसीलिए संयती आदि को दान वगैरह देने से संवर-निर्जरा रूप धर्म भी होता है और शुभ कर्मबंध रूप पुण्य भी होता है। किन्तु जो पूर्ण व्रती नहीं हैं, संयतासंयति या असंयति हैं फिर भी दान या सेवा के पात्र हैं, तो उनको दान देने से, उन पर अनुकम्पा करने से, उनकी सेवा करने से भले ही संवर रूप धर्म न हों, किन्तु पुण्य का बंध अवश्य होता है। उस सेवा-दान-अनुकम्पा आदि के फलस्वरूप जीव को पुण्य की प्राप्ति होती है। जैसा कि आचार्य उमास्वाति ने बताया है -
भूत अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सराग-संयम, शांति और शौच - ये छह साता वेदनीय कर्म (सुख) के हेतु हैं ।
. दूसरी मान्यता के अनुसार जिस प्रवृत्ति में धर्म नहीं उसमें पुण्य भी नहीं।
यह मान्यता सिर्फ एक सम्प्रदाय की है, जैन जगत् के प्रायः मूर्धन्य विचारकों और विद्वानों ने इस धारणा का खण्डन किया है। क्योंकि इससे दान सेवा आदि का क्षेत्र बहुत ही संकुचित हो जाता है।
आगमों में बताया है - तीर्थंकर देव दीक्षा लेने से पहले वर्षीदान देते हैं ?३ यह दान कौन लेते हैं ? क्या त्यागी श्रमण, संयती यह दान लेने जाते हैं ? नहीं । यह दान लेने जाते हैं - कृपण, दीन, भिक्षुक, अनाथ आदि ऐसे व्यक्ति जिन्हें स्वर्ण-मणि आदि की आवश्यकता या कामना है ? और वे तो स्पष्ट ही अव्रती या श्रावक की कोटि में ही आयेंगे। तो क्या उन लोगों को दान देने में तीर्थंकर देव को संवर रूप धर्म होता है ? नहीं, इस दान को पुण्य हेतुक माना है
और वास्तव में ही वह पुण्य है । अगर पुण्य नहीं होता तो तीर्थंकर भगवान महावीर आदि दीक्षा लेने से पूर्व इतना बड़ा पाप कृत्य क्यों करते ? इधर तो १. तत्त्वार्थसूत्र ६/१२ २. आचार्य भिक्षुकृत नव पदार्थ (पुण्य पदार्थ, गा. ५४-५६) ३. आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध