Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद
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करोड़ों, अरबों-खरबों स्वर्ण-मुद्राओं का दान और उधर पाप का बंधन । अतः इस एक उदाहरण से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस कार्य में धर्म नहीं हो, उसमें भी पुण्य हो सकता है। बहुत से कृत्य धर्मवर्द्धक नहीं हैं, किन्तु पुण्यकारक हैं, जैसे तीर्थंकरों का वर्षीदान ।
___ रायप्रसेणीसूत्र में राजा प्रदेशी का जीवनवृत्त है । वह जब केशीकुमार श्रमण से श्रावकधर्म अंगीकार करता है तब अपने राज्यकोष को चार भागों में बाँटता है। जिसके एक भाग में वह अपने राज्य में दानशालाएँ, भोजनशालाएँ,
औषधालय, कुएँ, अनाथाश्रम आदि खुलवाता है जहाँ हजारों अनाथ, रुग्ण, भिक्षुक आदि आकर आश्रय लेते हैं, अपनी क्षुधा पिपासा शांत करते हैं और
औषध आदि प्राप्त कर स्वाध्याय लाभ लेते हैं । अगर इन प्रवृत्तियों में पुण्य नहीं होता तो केशीकुमार श्रवण अपने श्रावक राजा प्रदेशी को स्पष्ट ही कह देते-यह कार्य पुण्य का नहीं है, अतः करने से क्या लाभ है और फिर श्रावक व्रतधारी चतुर राजा भी यह सब आयोजन क्यों करता? अतः आगम की इस घटना से भी स्पष्ट सूचित होता है कि बहुत से अनुकम्पापूर्ण कार्यों में धर्म भले ही न हो, किन्तु पुण्यबंध तो होता ही है और इसी पुण्य हेतु व्यक्ति शुभ आचरण करता है। ताकि दीन-अनाथ अनुकम्पा पात्र व्यक्तियों को सुखसाता पहुँचे । स्थानांगसूत्र में पुण्य के नौ स्थान (कारण) बताये हैं जैसे
___(१) अन्नपुण्णे (२) पान पुण्णे (३) वत्थ पुण्णे (४) लयण पुण्णे (५) सयण पुण्णे (६) मण पुण्णे (७) वयण पुण्णे (८) काय पुण्णे (९) नमोक्कार पुण्णे
यहाँ पुण्य का अर्थ है पुण्य कर्म की उत्पत्ति के हेतु कार्य । अन्न, पान (पानी) स्थान, शयन (बिछोना) वस्त्र आदि के दान से तथा मन, वचन, काया आदि की शुभ (परोपकार प्रधान) प्रवृत्ति से एवं योग्य गुणी को नमस्कार करने से पुण्य प्रकृति का बंध होता है । ये पुण्य के कारण हैं, कारण में कार्य का उपचार कर इन कारणों को पुण्य की संज्ञा दी गई है। अर्थात् अन्नदान से अन्नपुण्य, पान (जल) दान से पान पुण्य इसी प्रकार अमुक कारण से जो पुण्य होगा उसे वही संज्ञा दी गई है। १. स्थानांगसूत्र ९/३/६७६