Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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· दान : अमृतमयी परंपरा भी शब्द न निकला । कीचक द्वारा लात मारे जाने के समाचार भी शान्तभाव से सुन लिए । रहने योग्य स्थान और क्षुधानिवृत्ति के लिए भोजन माँगने पर कौरवों ने हमें दुत्कार दिया, तब उपदेश याद न आया । सत्य न्याय और अधिकार की रक्षा के लिए पाण्डव युद्ध करने को विवश हुए, तब सहयोग देना तो दूर रहा, कौरवों के सेनापति बनकर हमारे रक्त के प्यासे हो उठे हैं । और अब, जब पाण्डवों द्वारा मार खाकर जमीन संघ रहे हैं, मृत्यु की घड़िया गिन रहे हैं, तब हमें उपदेश देने की हूक उठी है। बेटी ! तेरा यह सोचना सत्य है । तू मुझ पर जितना हसे, उतना ही कम है। परन्तु पुत्री ! उस समय पापात्मा कौरवों का दिया हुआ अन्न खाने से मेरी बुद्धि मलिन हो गई थी। किन्तु अब वह अपवित्र रक्त अर्जुन के बाणों ने निकाल दिया है। अतः मुझे सन्मार्ग बताने का साहस हो सका
कहने का तात्पर्य यह है कि अन्याय अनीति से उपार्जित द्रव्य के दान से आदाता की बुद्धि बिगड़ती है। इसलिए देयद्रव्य में यह विवेक तो होना ही चाहिए। साधु-साध्वियों और त्यागियों को दिये जाने वाले द्रव्य के विषय में भी यह विवेक बताया गया है -
न्यायगत, कल्पनीय, एषणीय और प्रासुक आहारादि उत्कृष्ट अतिथियों को देना चाहिए।
इसी प्रकार द्रव्य विशेष के लिए तत्त्वार्थभाष्य में संकेत है -
अन्न आदि द्रव्यों की श्रेष्ठ जाति और उत्तम गुण से युक्त द्रव्य देना द्रव्य विशेष है।
सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य पूज्यपाद ने द्रव्य विशेष का लक्षण किया है -
- जिससे तप और स्वाध्याय आदि की वृद्धि होती है, वह द्रव्य विशेष
इसी प्रकार चारित्रसार में भी इस विषय में सुन्दर स्पष्टीकरण किया है
१. न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणां... दानम् । - तत्त्वार्थ भाष्य २. द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सारजाति गुणोत्कर्षयोगः । - तत्त्वार्थभाष्य ३. तपः स्वाध्याय परिवृद्धि हेतुत्वादिद्रव्यविशेषः । - त. सर्वार्थसिद्धि