Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद हो जाता है और वह अहित या अकर्त्तव्य से दूर हट जाता है ।१ ।
मारवाड का एक राजा शिकारी के वेष में शिकार खेलने जा रहा था। एक चारण जो फल तोड़ने के लिए एक पेड़ पर चढ़ा हुआ था, उसने राजा को किसी हिरन के पीछो घोड़ा दौड़ाते हुए देखा तो उसका हृदय व्यथित हो गया । वह चाहता था कि राजा को वह उपदेश दे, किन्तु ऐसे समय में राजा उपदेश सुनने के मूड में नहीं था। जंगल का रास्ता जनशून्य होने के कारण आगे जाकर एक पगदण्डी के रूप में परिणत हो गया, कुछ दूर और चलने पर तो वह पगडण्डी भी बन्द हो गई । राजा पशोपेश में पड़कर इधर-उधर देखने लगा । ऊपर देखा तो एक व्यक्ति फलदार पेड़ पर चढ़ा हुआ दिखाई दिया। राजा ने उससे पूछा – “फलां गाँव की बाट (रास्ता) कौन-सी है ?" चारण ने अच्छा अवसर देखकर निम्नोक्त दोहे में उत्तर दिया -
"जीव मारतां नरक है जीव वचातां सग्ग। - हूँ जाणू दोई वाटड़ी, जिण भावे तिण लग्ग ॥" - राजा सुनते ही चौंक पड़ा । चिन्तन मन्थन होने लगा हृदय में । चारण की बात उसके हृदय में सीधी उतर गई । उसी दिन से उसने शिकार खेलना छोड़ दिया। दयालु बन गया।
इसी प्रकार जैन इतिहास की एक प्रसिद्ध घटना है – महाकवि धनपाल जैन श्रावक थे । वे बड़े ही दयालु और शान्त थे । महाराजा भोज के दरबार के नवरत्नों में से वे भी एक थे । एक दिन राजा भोज बड़े आग्रह के साथ शिकार खेलने के लिए धनपाल कवि को साथ ले गया । राजा ने एक भागते हुए हिरन को बाण से बींध डाला और वह भूमि पर गिरकर प्राणान्त वेदना से छटपटाने लगा । इस प्रसंग पर साथ के दूसरे कवियों ने राजा की प्रशंसा में कविताएँ पढीं। महाकवि धनपाल चुपचाप खड़े रहे। आखिर राजा ने स्वयं प्रसंगोचित्त वर्णन के लिए धनपाल कवि से कहा । महाकवि ने राजा को बोध देने की दृष्टि से तत्कालीन प्रसंग का निर्भयतापूर्वक उपयोग करते हुए कहा -
१. ज्ञानदानेन जानाति जन्तुः स्वस्थ हिताहितम् ।
वेत्ति जीवादि तत्त्वानि, विरतिं च समश्नुते ॥ - त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित