Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
व्यक्ति धार्मिक ज्ञान भी साथ में ले सके।
ये तीनों ज्ञानदान के पहलू हैं, जिनमें एक या दूसरो प्रकार से ज्ञान प्राप्त होता है। पहले पहलू में व्यक्ति सीधा ही किसी को ज्ञान देने नहीं बैठता, न कोई उद्देश्य ही होता है, परन्तु तात्कालिक प्रसंग पर कोई ऐसी चुभती बात कह डालता है, जिससे सुनने वाले को सहसा ज्ञानदान मिल जाता है अथवा वह वाक्य उसकी आत्मा को झकझोरकर जगा देता है। ऐसे दान की महिमा सभी दोनों से बढ़कर बताई है -
- जल, अन्न, गाय, पृथ्वी, निवास, तिल, सोना और घी इन सबके दान की अपेक्षा ज्ञानदान विशिष्ट (बढ़कर) है।'
ऐसे समय में जब मनुष्य किसी उलझन या पेशोपेश में संशयग्रस्त हो, भ्रान्त हो अथवा विपरीत मार्ग पर चला जा रहा हो, कोई भी अच्छी सलाह, परामर्श, सुझाव या उचित मार्गदर्शन ज्ञानदान का काम करता है।
ज्ञानदान का पहला पहलू सीधा जीवनस्पर्शी है। जैनशास्त्र में कई ऐसे उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें खासकर यह बताया गया है कि महापुरुष के एकवचन से उक्त श्रोता को संसार से विरक्ति हो गई अथवा उसने अपने गृहस्थ जीवन में भी परिवर्तन कर लिया। सुबाहुकुमार, आनन्द श्रमणोंपासक, कामदेव आदि के उदाहरण मौजूद हैं, इसकी साक्षी के रूप में राजा प्रदेशी को तो केशी श्रमण मुनि के वचन सुनते ही हृदय में जागृति आ गई । राजा प्रदेशी, जो एक दिन क्रूर, अधार्मिक और खूखार बना हुआ था, मुनि के उपदेश सुनते ही एकदम बदल गया । वह शान्त, दयालु, धार्मिक और दानी बन गया । केशी श्रमण का ज्ञानदान सफल हुआ।
यही तो ज्ञानदान है, जिससे व्यक्ति के जीवन में हिताहित का भान हो, जीव-अजीव आदि तत्त्वों का बोध हो और पाप या अधर्म कार्य से व्यक्ति विरत हो । आचार्य हेमचन्द्र ने ज्ञानदान का यही लक्षण किया है -
- वास्तव में ज्ञानदान प्राप्त होते ही मनुष्य को अपने हिताहित का बोध.
१. सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।
वार्यन्न-गो-मही-वासस्तिलकांचन-सर्पिषाम् ।। - मनुस्मृति ४/२३३