Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा "रसातलं यातु तदन्न पौरुषं, कुनीतिरेषा शरणोत्यदोषान् । निहन्यते यद् बलिनाऽतिदुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत् ।"
- ऐसा पौरुष (वीरत्व) पाताल में जाये । निर्दोष प्राणियों को मारना कुनीति है। संसार में यह अराजकता छाई हुई है कि एक बलवान अत्यन्त दुर्बल को मार डालता है। हाय ! इसे देखकर बड़ा कष्ट होता है।
राजा भोज ने जब अपनी भर्त्सना सुनी तो वे तिलमिला उठे । उन्होंने नम्रता के स्वर में कहा - "कविराज ! यह क्या कहते हो? तुमने तो उलटा ही राग छेड़ दिया ।" धनपाल कवि ने दृढ़ता के स्वर में कहा - .
"वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् । ..
तृणाहाराः सदैवेते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥"
- देहान्त के समय अगर शत्रु भी मुंह में तिनका दबाकर शरण में आ जाते हैं, तो वे भी छोड़ दिये जाते हैं किन्तु ये प्राणी तो बेचारे सदैव मुँह में तिनका दबाए रहते हैं, तृणाहारी हैं, इन पशुओं को क्यों मारा जाता है ? .
राजा भोज के हृदय पर ठीक समय पर इस सत्योपदेश की करारी चोट पड़ी। राजा के मन में दयाभाव जाग्रत हुआ और उन्होंने शिकार खेलने का त्याग कर दिया ।
यह था ज्ञानदान का प्रभाव, जिसने राजा का जीवन ही बदल दिया । अब लौकिक ज्ञानदान के दूसरे पहलू पर विचार करें ।
___ महात्मा गांधी जी एक बार ईसाई पादरियों तथा गृहस्थों के सम्पर्क में आकर तथा उनके द्वारा प्रत्यक्ष रुग्णसेवा आदि देखकर ईसाई धर्म से प्रभावित हो गए थे। वे ईसाई धर्म स्वीकार करने को आतुर थे, तभी उनके मन में एक स्फुरणा आई कि "ईसाई बनने से पहले क्यों न एक बार अपनी शंकाओं का समाधान गुजरात के विद्वान् विचारक श्री राजचन्द्र भाई कवि से कर लिया जाये।" फलतः महात्मा गांधीजी ने उन्हें २७ प्रश्न लिख भेजे, जिनका समुचित समाधान पाकर गांधीजी का ईसाई बनने का विचार बदल गया । क्या श्रीमद राजचन्द्रजी द्वारा दिया गया यह ज्ञानदान कम महत्त्वपूर्ण था? इस ज्ञानदान ने महात्मा गांधी जी का जीवन ही बदल दिया ।