Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
निर्दोष प्राणियों का उद्धार करने की मेरी हार्दिक पुकार के बदले में आप मेरा मस्तक माँगते हैं न ? अभी उतार देता हूँ, राजन् ! इन बेचारे मूक प्राणियों के अन्तर का आर्तनाद सुनकर तो आकाश में बैठे हुए देवों ने भी मुँह फिरा लिया है। मैं तो एक सामान्य मानव हूँ। इन बेचारे निर्दोष प्राणियों की अपेक्षा मेरा यह छोटा-सा मस्तक कोई कीमती नहीं है।" बिम्बसार (उच्च स्वर से)- "क्या कहा तूने ? क्या इस यज्ञ को देखकर देवों ने भी मुँह फिरा लिया ? जिन्हें प्रसन्न करने के लिए मैंने यह यज्ञ रचा, क्या वे देव भी मेरे इस धर्मकार्य से संतुष्ट नहीं हुए?"
बुद्ध – "नहीं, राजन ! जरा सोचिये तो सही । इन सब पशुओं का करुण आर्तनाद सुनकर मेरे जैसे साधारण मनुष्य भी कांप उठते हैं तो दयासागर देव कैसे प्रसन्न हो सकते हैं ?"
बिम्बसार - "तो क्या यह धर्मकार्य नहीं है । अनेक वर्षों पुरानी यह प्रथा क्या निष्फल है?
बुद्ध - "आपकी यह प्रथा अत्यन्त निकम्मी और हानिकारक भी सिद्ध हुई है।"
बिम्बसार - "कैसे?" ... बुद्ध - "राजन् ! इतना तो आप जानते हैं न?" जैसी आत्मा आपके
अन्दर विराजमान है, वैसी ही मेरे अन्दर है और वैसी ही आत्मा इस मेमने में है। मानवमात्र में ही नहीं, दूर-सुदूर धरती पर बसने वाले सभी प्राणियों में वह आत्मा व्याप्त है। इस निर्दोष मेमने को मारने से आपकी आत्मा का भी तो हनन होगा । जो बात मैं कह रहा हूँ, उसे निर्दोष मेमना भी पुकारता है। जिला से नहीं, नेत्रों से उठती हुई इसकी पुकार आपने कभी सुनी है, राजन !"
बिम्बसार (खड़े होकर कुमार को नमन करते हुए) - "इतनी छोटीसी उम्र में प्राणिमात्र में विराजमान आत्मा के नवदर्शन कराने वाले आप जैसे सन्त के चरणों में अपना मस्तक झकाता हूँ और आपको गुरुपद पर स्थापित करता हूँ, देव ! आज से मैं अपनी रिद्धि-सिद्धि आपके चरणों में अर्पित करता हूँ। आज से आप मगध के राजकुल के गुरु बने हैं । आज आपने जैसे मेरा जीवनपथ आलोकित किया है; वैसे मगध की प्रजा को भी आपके उपदेश का