Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद लाभ देने की कृपा कीजिए।"
बुद्ध - "अभी तो मैं सत्य की खोज में निकला हुआ एक सामान्य पथिक हूँ । यदि राजकुल में मुझे पड़े रहना होता तो मैं कपिलवस्तु की राजगद्दी क्यों छोडता?"
बिम्बसार (आश्चर्य से) - "हैं ! तो क्या आप स्वयं कपिलवस्तु के राज्य के उत्तराधिकारी थे? क्या शाक्यकुल के भावी राजकुमार आप स्वयं ही हैं?"
बुद्ध - "था............ एक दिन । पर आज तो पर-पीडा को मिटाते हुए मैं अपने अन्तर की पीड़ा का निवारण करने हेतु किसी सत्य की खोज में निकला हुआ एक सामान्य मनुष्य हूँ। ऐसी कोई शक्ति प्राप्त करके सत्य के दर्शन पाऊंगा, तब एक दिन अवश्य मैं आपके यहाँ आऊँगा । सभी में बसी हुई इस विराट् आत्मा के दर्शन पाऊँगा तो मैं सबको कराऊँगा। आज तो मैं जा रहा हूँ, राजन् ! अहिंसा धर्म को भूलना मत ।"
. बिम्बसार - "अच्छा तो देव ! जायेंगे। यह लीजिए आज से ही आपके सामने यह घोर हिंसक यज्ञ बन्द करता हूँ। मेरे जीवन का परिवर्तन करके आपने मेरा उद्धार किया । आपके पुनीत चरणों से मगध की धरती धन्य हो उठी । आपके द्वारा प्रतिबोधित अहिंसा धर्म को मैं कभी नहीं भूलूंगा।"
बुद्ध – “आपका यह निर्णय कल्याणकारी हो । आपके शुभ प्रयत्न श्रेयस्कर हों । आपको इन विराट मूक आत्माओं का आशीर्वाद मिले ।"
यों कहकर बुद्ध वहाँ से प्रस्थान कर देते हैं।
यह वह अभयदान है, जिसमें मृत्यु से भयभीत हजारों-लाखों प्राणियों की रक्षा का स्वर है । इस प्रकार के अनेक अभयदान प्राचीन आचार्यों ने, विशिष्ट प्रभावशाली सन्तों ने राजाओं, महाराजाओं, ठाकुरों, सामन्तों, रावतों एवं राजपूतों को उपदेश, प्रेरणा, प्रवचन आदि द्वारा करवाया है। मरते हुए या मारे जाने वाले पशु-पक्षियों को उनके पंजे से छुडवाकर महान् पुण्य उपार्जन किया है। जैनाचार्यों ने कई हिंसक लोगों को हिंसा छुडवाई है; उन्हें अहिंसा के उज्ज्वल पथ पर मोड़ा है।