Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद यह हरकत देखी तो उन्हें ऐसा करने से रोका । इस पर कुछ लोग क्रुद्ध होकर बोले - "ऐसे दयालु हो तो ले जाओ इसे अपने घर, सेवा करो इसकी।" लोगों के गुस्से पर ध्यान देकर दयालु अभयदानी ने अपना अंचल पसारा और उस पर धीरे से साप को ले लिया । सर्प भी अपने उपकारी अपकारी को पहचान लेता है। जब उसने देखा कि यह मुझे जरा भी दुःख नहीं देगा, उसने दयालु को जरा भी नहीं काटा। सर्प को अंचल में लेकर उसे एक बाड़े में छोड़ आया। जब वह वापस अपने घर की ओर लौट रहा था तो उसे एक धनाढ्य ने कहा - "भाई ! इस सर्प के बचाने का जो पुण्य हो उसे मुझे दे दो और उसके बदले में तुम जितना धन चाहो, दे दूंगा।" वह वीर दयालु प्रामाणिक था। उसे कम-ज्यादा, देना-लेना पसन्द न था । अतः उसने कहा - "हम दोनों ही इस बारे में अनभिज्ञ हैं, इसलिए दोनों यह सौदा नहीं कर सकते । किसी एक विशिष्ट अनुभवी एवं निष्पक्ष पुरुष के पास चलें, वही इस विषय में निर्णय दे सकता है।" वे दोनों धर्मराज युधिष्ठर के पास गये और उनसे निर्णय मांगा । उन्होंने निर्णय देने में अपनी असमर्थता बताई । तदनन्तर वे श्री कृष्ण के पास आये। उनसे भी यही प्रश्न पूछा तो श्रीकृष्णने कहा - "धन और धर्म दोनों भिन्न वस्तु हैं । धर्म अन्तर की वस्तु है, धन बाहर की; दोनों में तुलना कैसे हो सकती है ?" फिर भी धनाढ्य ने अपना आग्रह जारी रखा कि किसी तरह आप मूल्यांकन कर दीजिए । निरुपाय होकर श्री कृष्णने कहा -
____ युधिष्ठिर ! अगर कोई सोने का बना मेरुपर्वत किसी को दे दे अथवा सारी पृथ्वी दे दे और दूसरा एक ही प्राणी को जीवनदान दे तो भी अभयदान के बराबर नहीं हो सकते । अथवा हे युधिष्ठिर ! कोई व्यक्ति ब्राह्मणों को हजारों गायें दान देता है, वह भी उसकी समता नही कर सकता, जो एक प्राणी को जीवन देता है।
___ सचमुच प्राण या जीवन के दान की तुलना किसी भी नाशवान पदार्थ या संसार की दृष्टि में बहुमूल्य समझे जाने वाले पदार्थ से नहीं हो सकती। १. यो दधात् कांचनं मेरुं, कृत्सनां चैव वसुन्धराम् ।
एकस्य जीवितं दधात्, न च तुल्यं युधिष्ठिर। कपिलानां सहस्राणि, यो विप्रेभ्यः प्रयच्छति । एकस्य जीवितं दधात्, न च तुल्य युधिष्ठिर ! - महाभारत