Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा उठाने देना !" उन्होंने स्वीकार कर लिया। पालकी के चार पायों में से अगले दाहिने पाये के नीचे उन्होंने अपना कन्धा लगा दिया । कुछ ही दूर चले होंगे कि आचार्य सिद्धसेन ने इन्हें वृद्ध देखकर विश्राम देने के लिहाज से कहा - "स्कन्धस्ते यदि बाधति.... !" - अगर तुम्हारा कन्धा दुःखता ही तो.... वृद्धवादी आचार्य तुरन्त बोले
___ "स्कन्धो मे नहि बाधते, किन्तु बाधति तव बाधते ।" - "मेरा कन्धा नहीं दुःखता, किन्तु तुम्हारा ‘बाधति' प्रयोग अशुद्ध होने से वह पीड़ा दे रहा है।" यह सनते ही सिद्धसेन विचार में पड़े कि ऐसी गलती निकालने वाले गुरुदेव के सिवाय और कौन हो सकते हैं ? उन्होंने नीचे झुककर वृद्धवादी के चेहरे की ओर देखा तो तुरन्त पहचान गये और पालकी रुकवाकर नीचे उतरे और गुरुचरणों में गिरे । बोले - "गुरुदेव ! क्षमा करें, मैंने आपको इतनी तकलीफ दी ।" "वत्स ! मुझे तो कोई बात नहीं, पर इन बेचारे कहारों को कितनी पीड़ा होती होगी, जिनके कन्धों पर बैठकर तू रोज चलता है ? चाहे ये कहते न हो, परन्तु अहिंसक साधु का यह कर्त्तव्य नहीं है।" सिद्धसेन को तुरन्त प्रतिबोध लग गया और उन्होंने उसी समय पालकी सदा के लिए छोड़ दी और कहारों को छुट्टी दे दी । गुरुदेव के द्वारा दिये हुए ज्ञानदान के लिए सिद्धसेन ने अत्यन्त आभार माना।
इसी प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि को भी एक वृद्ध आर्या ने ज्ञान देकर १,४४४ बौद्धों को कड़ाह में होमने के हिंसामय संकल्प का प्रायश्चित करने के लिए प्रेरित किया।
___ गोस्वामी तुलसीदासजी को उनकी पत्नी रत्नावली ने ऐसा अद्भुत ज्ञानदान दिया कि उनका स्त्री शरीर पर मोह बिलकुल शान्त हो गया, वे उस बोध से प्रेरित होकर सन्त बन गये और जगत् को 'रामचरितमानस' जैसा अनुपम भक्तिप्रधान ग्रन्थ दे गये।
इसके अलावा अलौकिक ज्ञानदान का एक पहलू यह भी है कि प्राचीनकाल में जब हस्तलिखित पत्राकार ग्रन्थ या तो ताड़पत्र या भोजपत्र पर लिखे जाते थे, इस कारण शास्त्र - जो सम्यग्ज्ञान के अनुपम साधन थे, सर्वत्र उपलब्ध नहीं थे। उन्हें प्राप्त करने के लिए साधु-साध्वी दूर-सुदूर भ्रमण किया