Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
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इसमें अलौकिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से आहारदान का महत्त्व बताया गया है | अलौकिक दृष्टि से आहारदान का महत्त्व बताने के लिए ही उन्होंने तीनों को देने का उल्लेख किया है। लौकिक दृष्टि से आहारदान देने को आचार्य वसुनन्दी ने एक तरह से करुणादान कहा है
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'अत्यन्त वृद्ध, बालक, मूक, अन्धा, बहरा, परदेशी, रोगी और दरिद्र मनुष्यों को करुणादान दे रहा हूँ' ऐसा समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए । १
जब किसी प्रदेश में दुष्काल पड गया हो, वह प्रदेश सूखा, बाढ या भूकम्प आदि से प्रभावित हो गया हो या किसी महामारी या बीमारी के उपद्रव से पीड़ित हो, विधवा, अनाथ या अपाहिज हो, कमाने के अयोग्य हो, अत्यन्त वृद्ध हो, अत्यन्त निर्धन हो, ऐसे व्यक्ति को करुणा की दृष्टि रखकर आहारादि दान देना लौकिक दृष्टि से भी उत्तम है
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समानदति की दृष्टि से भी आहारादि का दान उचित है । वैसे तो जब तक बस चलता है, कोई भी व्यक्ति किसी से माँगना या किसी के आगे हाथ पसारना अथवा किसी से दान लेना नहीं चाहता । विवशता की परिस्थिति में ही गृहस्थ किसी दूसरे से याचना करता है या दान लेना चाहता है । इसलिए मानवीय कर्तव्य के नाते भी ऐसे समय में आहारादि दान देना साधन-सम्पन्न मानव का कर्त्तव्य हो जाता है।
तथागत बुद्ध के शब्दों में कहें तो - "जो मनुष्य भोजन देता है, वह लेने वाले को ४ चीजें देता है - वर्ण, सुख, बल और आयु । साथ ही देने वाले को उसका सुफल उसी रूप में मिलता है - दिव्यवर्ण, दिव्यसुख, दिव्यबल और देवायु।"२
वास्तव में अन्नदानी दयार्द्र होता है। उसके कण-कण में क्षुधापीड़ितों के प्रति करुणा होती है, उसका अनुकम्पाशील हृदय भूखों के दुःख को अपना
१. अइवुड्ढ - बाल - भूयंध बहिर-देसंतरीय - रोडाणं ।
जह जोगं दायव्वं करुणां दाणंति भणिऊण ॥
२. अंगुत्तरनिकाय ४/५८