Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा सके उतना अनाज लाया । परिवार के सब लोगों ने सोचा - "रोज-रोज एक लाख मुद्रा कहाँ से खर्च करेंगे? और फिर एक लाख मुद्रा देने पर भी अन्न कोई देना नहीं चाहता । अब क्यों नहीं आज ही इस हँडियाँ में विष घोलकर सदा के लिए सो जाएँ।" इस विचार से वह लाख रुपयों के मूल्य के अनाज वाली हँडिया चूल्हे पर चढाई गई । जब अनाज सीझ गया तो वह हँडिया नीचे उतार ली। संयोगवश उसी समय इसी श्रावक के यहा वज्रस्वामी के शिष्य मुनिवर भिक्षा के लिए पहुच गए। उन्हें देखते ही सबने कहा - "भगवन् ! हमारे अहोभाग्य हैं, आप अच्छे समय पर पधार गये ।" साधुओं को शंका हुई कि कहीं हमारे आने से इनके भोजन में अड़चन तो नहीं पडी है। पूछताछ करने पर श्रावक परिवार ने शंका का निवारण किया और सारी आपबीती सुनाई । फिर श्रद्धापूर्वक कहा - "गुरुदेव ! आप इस आहार को ग्रहण करें । आपके प्राण बचेंगे तो आपसे ज्ञान-ध्यान, तपसंयम का पालन होगा । हमने अभी तक इस लक्षमुद्रापाकी अन्न में विष नहीं मिलाया है।" यह सुनते ही साधुओं को. आचार्य व्रजस्वामी की कही हुई बात याद आ गई। उन्होंने श्रावक परिवार को आश्वासन देते हुए कहा – “आपने तो सारा आहार हमारे पात्र में डाल दिया। परन्तु आपको अब केवल आज ही उपवास करना है, विष न खाएँ । आचार्य वज्रस्वामी की भविष्यवाणी के अनुसार हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि कल से ही सुकाल हो जाएगा।" सचमुच दूसरे दिन प्रातःकाल ही विदेश से अनाज से भरे जहाज आ पहुँचे । यही कारण है कि सद्गृहस्थ द्वारा अलौकिक आहारदान का बहुत उत्तम फल ‘रयणसार' में बताया गया है -
__- जो भव्य जीव मुनिवरों को आहार देने के पश्चात् अवशेष भोजन को प्रसाद समझकर सेवन करता है, वह संसार के सारभूत उत्तम सुखों को पाता है और क्रमशः मोक्ष के श्रेष्ठ सुखों को प्राप्त करता है।
____ इसी तरह जैनग्रन्थों में बलभद्र मुनि का वर्णन आता है मुनि, मृग और बढ़ई तीनों की उत्कृष्ट भावना एक जैसी होने से तीनों मरकर वहाँ से स्वर्ग में
गये।
लौकिक आहारदान का महत्त्व भी कम नहीं है। परन्तु मनि तो अपने नियमानुसार कल्पनीय एवं एषणीय आहार ही लेते हैं। सब जगह मुनियों