Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा यही कारण है कि आहारदान का बहुत बड़ा माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि साधु-जीवन का सारा दारोमदार संयम-साधना में पुरुषार्थ पर है और वह पुरुषार्थ आहार किये बिना हो नहीं सकता । आचार्य अमितगति भी अपने श्रावकाचार में इसी बात को प्रतिध्वनित करते हैं -
केवलज्ञान से बढ़कर उत्तम कोई ज्ञान नहीं है, निर्वाण सुख से श्रेष्ठ कोई सुख नहीं है। उसी प्रकार आहारदान से बढ़कर उत्तम अन्य कोई दान नहीं है। इसलिए अन्नदानकर्ता पुरुष संसार की सर्वसुन्दर वस्तुएँ उस दान के फलस्वरूप प्राप्त करता है। अधिक क्या कहें, सर्वज्ञ महापुरुष के बिना अन्य कोई व्यक्ति आहारदान के फल का कथन नहीं कर सकता ।'
शरीर की तमाम वेदनाओं में सबसे बढ़कर वेदना क्षुधा है । भूखा व्यक्ति धर्म-कर्म सब कुछ भूल जाता है। उसे कुछ नहीं सुहाता। उस समय वह अधर्म का आचरण करने पर उतारू हो जाता है, लज्जा और मर्यादा को भी ताक में रख देता है। इसलिए नीतिकार ने कहा है -
"बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?". कौन-सा ऐसा पाप है, जिसे भूख से व्याकुल आदमी नहीं कर बैठता ? इसलिए आहारदान या अन्नदान का बहुत बड़ा महत्त्व बताया है । वेदों में इसीलिए कहा है - "अन्नं वै प्राणाः ।" - अन्न ही वास्तव में प्राण हैं । अन्नदान देना एक अर्थ में प्राणदान देना है। इसीलिए महाभारत में अन्नदान की महिमा बताते हुए वर्णन किया है -
सभी दानों में अन्नदान श्रेष्ठ बताया है। इसलिए अनायास ही धर्मपालन
१. केवलज्ञानतो ज्ञानं, निर्वाणसुखतः सुखम् ।
आहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् ॥ बहुनाऽत्र किमुक्तेन विना सकलवेदिना।
फलं नाहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ॥ - अमित. श्राव. २५, ३१ २. खुहासमा णत्थि सरीस्वेयणा। ३. बुभुक्षितं न प्रतिभाति किंचित् ।।