Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद
१९३ जिस प्रकार सिद्ध-परमात्मा सब प्रकार की व्याधि से मुक्त होते हैं, उनके (अनन्त) सुख का तो कहना ही क्या ? उसी प्रकार औषधदान देने वाले महान् आत्मा को भी जिन्दगीभर किसी प्रकार की शरीर पीडाकारी व्याधि नहीं होती, उसे भी सिद्ध के समान सुख प्राप्त होता है। जो औषधदान देता है, वह कान्ति का भण्डार बनता है, यशकीर्तियों का कुलमन्दिर होता है और लावण्यों (सौन्दर्यो) का समुद्र होता है।
औषधदान के महाफल के सम्बन्ध में भगवान ऋषभदेव के पूर्व-जन्म की एक घटना सुनिए -
सम्यक्त्व-प्राप्ति होने के बाद के ग्यारहवें भव में ऋषभदेव वज्रनाभ चक्रवर्ती के रूप में हुए थे। इनके पिता वज्रसेन राजा राजपाट छोड़कर मुनि बने और केवलज्ञान प्राप्तकर तीर्थंकर बने थे। उन्हीं वज्रसेन राजा के पाँच पुत्र थे - बाहु-सुबाहु, पीठ, महापीठ और वज्रनाभ तथा इनके सारथी का नाम सुयशा था। ये छहों परस्पर गाढ़ मित्र थे। तेरहवें भव में वज्रनाभ का जीव वैद्य हुआ और बाकी के चारों मित्र बने । एक दिन ये चारो मित्र कहीं जा रहे थे कि रास्ते में एक साधु को भिक्षा के लिए जाते देखा, जिनके शरीर में प्रबल रोग था। उसी रोग के कारण वे लडखड़ाते हुए चल रहे थे। चारों ही मित्रों ने इन रोगग्रस्त मुनि की चिकित्सा कराने का निश्चय किया और उसी वैद्य के यहाँ पहुंचे। उन्होंने वैद्य से कहा - "यहाँ से अभी-अभी एक साधु गुजरे हैं, आपने देखा नहीं, उनके शरीर में कितना भयंकर रोग था । आपने उनका इलाज क्यों नहीं किया ?"
वैद्य बोला - "मैंने उन्हें देखते ही उनके रोग का तो निदान कर लिया था, परन्तु उस रोग के उपचार के लिए मेरे पास और औषध तो हैं; किन्तु बावनाचन्दन और रत्नकम्बल मेरे पास नहीं है। इस रोग के निवारण के लिए ये दोनों वस्तुएँ अत्यन्त आवश्यक हैं। यदि आप लोग ये दोनों चीजें मुझे ला दें तो मैं उन मुनि की चिकित्सा करके बिल्कुल स्वस्थ कर दूंगा।" १. आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः ।
किं सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्यैव महात्मनः ॥ विधानमेष कान्तीनां, कीर्तीनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो, भैषज्य येन दीयते ॥