Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
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करनेवाला है । जिस दान के प्रभाव से दाता और पात्र दोनों ही समस्त संसार के दुःखों से निवृत्त होकर साक्षात् परमात्मा हो जाते हैं, अजर, अमर और अक्षय अनंतसुख के अधिकारी हो जाते हैं उस दानतीर्थ की महिमा किस प्रकार वर्णन की जा सकती है ।
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असल में तो दानतीर्थ की महिमा वीतराग प्रभु ने "अहोदानमहोदान" इस प्रकार से साश्चर्यरूप ही वर्णन की है । इन्द्रादिक देवगण भी पंचाश्चर्य कर दानतीर्थ की महिमा को प्रकट करने में असमर्थ हो गये । यह अद्भुत महात्म्य - दानतीर्थ का किसको प्यारा नहीं होगा ।
धर्म का फल प्रायः परोक्ष है परन्तु दान का फल कीर्ति सुयश और आत्मसुख प्रत्यक्षरूप से प्रकट होता है । दान के प्रदाता और दान के पात्र दोनों को प्रत्यक्ष में लाभ होता है ।
वास्तविक विचार किया जाय तो धर्म और दान ये दोनों दो नहीं है, एक ही हैं । दान धर्म है और धर्म दान है । इसीलिये दान को उत्तम क्षमादि दश धर्मों में बतलाया है।
"उत्तम त्याग कहो जगसारा, औषधशास्त्र अभय आहारा । निहचे रागद्वेष निखारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ।" कविवर द्यानतरायजी ने दशलक्षणी पूजा में चार प्रकार के दान को ही त्याग धर्म बतलाया है ।
जैसे वर्षा की बूँद धरती पर जहाँ भी गिरती है वहाँ ही हरियाली, वनस्पति, फल, फूल, वृक्ष आदि अगणित वस्तुएँ पैदा कर देती हैं वैसे ही सद्भावपूर्वक दिये गये दान की बूंदे हजारों रूप में नये-नये विचित्र फल पैदा करती हैं ।
धरती से अनाज की फसल प्राप्त करने के लिए किसान को सर्वप्रथम धरती को बीजवपन के रूप में, पानी के रूप में, खाद तथा सेवा के रूप में देना पड़ता है, बिना दिये धरती एक दाने से हजार दाने नहीं देती, इसी प्रकार जगत् का यह अचूक नियम है कि यदि प्राप्त करना चाहते हो तो अर्पित करना सीखों । दान ही प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है । दान प्रीजर्व (रक्षित करना) नहीं, अपितु ग्रो (संवर्द्धन वृद्धि करना)
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