Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान से लाभ
सभी धर्मग्रन्थों ने एक स्वर से स्वीकार किया है ।
जैनागम भगवतीसूत्र में तथारूप श्रमण या माहण को दिये गये दान को एकान्त निर्जरा-धर्म का कारण स्पष्ट रूप से बताया गया है । १
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“भगवान् ! श्रमणोपासक (सदगृहस्थ) आदि तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक एषणीय आहार देता है तो उसे क्या लाभ होता है ?"
“गौतम ! वह एकान्त कर्म निर्जरा (धर्म-प्राप्ति) करता है, किन्तु किञ्चित् भी पापकर्म नहीं करता ।"
यह है दान से धर्म-प्राप्ति रूप फल का ज्वलन्त प्रमाण ! इसीलिए चाणक्य ने कौटिल्य अर्थशास्त्र में दान को धर्म (दान धर्म:) स्पष्ट रूप से कहा है।
इससे आगे बढ़कर दान का फल समाधि - प्राप्ति बताया है ।
जिस समाधि (मानसिक शान्ति, परम आनन्द) के लिए लोग जंगलों की खाक छानते हैं, पहाड़ों में घूमते हैं, यौगिक क्रियाएँ करते हैं, दीर्घ तप और त्याग करते हैं, फिर भी उन्हें वास्तविक समाधि प्राप्त नहीं होती । लेकिन भगवतीसूत्र में स्पष्ट कहा है कि त्यागी श्रमण माहनों को जो श्रमणोपासक (सदगृहस्थ) उनके योग्य कल्प्य वस्तुओं का दान देकर उनको समाधि ( सुख - शान्ति) पहुचाता है, उस समाधिकर्ता को समाधि प्राप्त कराने के कारण समाधि प्राप्त होती है ।२
शालिभद्र ने पूर्व जन्म में ग्वाले के पुत्र के रूप में एक मासिक उपवास के तपस्वी मुनि को उत्कट भावों से दान देकर सुखसाता पहुँचाई थी । उसका फल उसे भी सुख-शान्ति, समृद्धि और आत्मिक शांति के रूप में मिला ।
१. समणोवासगस्सणं भंते! तहारूवं समणं वा, माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा । एगंतसो निज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ । - भगवती ८/६
२. समणोवासएणं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति । समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलब्भई ।
- भगवतीसूत्र, श. ७, उ. १