Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा गरीब के दान में इस क्रान्ति का बीज निहित रहता है। गरीब अच्छी तरह समझकर हृदय से जो अल्प से अल्प दान देगा, उसका मूल्य दान के परिमाण से नहीं आंका जा सकता - वह अमूल्य होगा। क्योंकि वह दान अभिमंत्रित होगा। वह महान् दान समाज के वातावरण को पवित्र बनायेगा और विचारक्रान्ति की सृष्टि में भारी प्रेरणा देगा । वह अमूल्य अभिमंत्रित दान समाज के लिए पारसमणि सिद्ध होगा, जिसके स्पर्श से सारा समाज सोना हो जायेगा।
यहाँ हमें महाभारत की 'राजसूय यज्ञ और नेवले' की कथा का स्मरण हो जाता है।
देश में भारी दुष्काल पड़ा हुआ था । एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार कई दिनों से भूखा था। ब्राह्मण किसी प्रकार कहीं से थोड़ा सत्तू ले आया। परिवार में चार व्यक्ति थे - ब्राह्मण, ब्राह्मणी, उनका पुत्र और पुत्रवधू । उतने सत्तू से चार व्यक्तियों का पेंट भरना तो दूर रहा, प्रत्येक को केवल कुछ ग्रास मिलते । चार व्यक्तियों के लिए सत्त चार भागों में बाटा गया । स्नान-ध्यान के बाद ब्राह्मण अपने हिस्से का सत्तू खाने बैठा । इसी समय उसने देखा कि एक अकाल पीड़ित भूखा कंकाल व्यक्ति उसके द्वारा पर खड़ा है। ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सारा सत्तू अत्यधिक श्रद्धा और विनय के साथ उसे खाने को दे दिया और स्वयं भूखा रह गया । क्षुधार्थ व्यक्ति उतना सत्तू खाकर कहने लगा कि उतने से उसकी क्षुधा शान्त नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई । तब ब्राह्मणी ने भी अपने हिस्से का सत्तू स्नेहपूर्वक उसे दे दिया। उसे भी खाकर उस व्यक्ति ने कहा कि उसकी भूख शान्त नहीं हुई है। तब ब्राह्मणपुत्र ने सहानुभूतिपूर्वक उसे अपने हिस्से का सत्तू दे दिया। उसे भी खाकरं उस व्यक्ति ने कहा कि उसकी क्षुधा अभी शान्त नहीं हुई, तो पुत्रवधू ने भी अपने हिस्से का सत्तू उसे अर्पित कर दिया । उसे खाकर वह व्यक्ति तृप्त हो गया और पुलकित मन से आशीर्वाद देकर वहाँ से चला
गया।
एक नेवला पास के एक वृक्ष पर बैठा यह सब देख रहा था । 'कुछ झूठन बची होगी तो उसे मैं खाऊंगा', यह सोचकर वह पेड़ से उतरा और उस व्यक्ति ने जहाँ बैठकर सत्तू खाया था, वहाँ पहुँचा । किन्तु वहाँ उसे एक कण भी नहीं मिला । तब वह उसी स्थान पर लोटने लगा और जब उठा तो उसने देखा