Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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भावना के अनुसार दान का वर्गीकरण
१६३ दान में भक्तिभाव, श्रद्धा, स्नेह, समर्पण भावना, सहानुभूति, आत्मीयता एवं अनुग्रह बुद्धि की प्रबलता होती है और स्वत्वविसर्जन तो होता ही है।
भारतीय इतिहास के स्वर्णपष्ठों पर राजा रन्तिदेव के जाज्वल्यमान जीवन की एक अत्यन्त प्रेरणादायी घटना है।
भयंकर दुष्काल में मानव अन्न के एक-एक दाने के लिए तरस रहा था। दयालु रन्तिदेव ने अपने अन्न भण्डार प्रजा के लिए खोल दिये और स्वयं के हिस्से का अन्न भी प्रजा को प्राप्त हो, अतः उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया। ४८ दिन पूरे हो चुके । ४९ वें दिन का प्रारम्भ हुआ, प्रजा और महामन्त्री के अत्यधिक आग्रह से वे पारणा करने के लिए बैठे । प्रजा की दयनीय स्थिति देखकर पारणा करने की इच्छा नहीं थी तथापि उनके आग्रह को सम्मान देने के लिए वे पारणा करने बैठे और मन्त्री ने आधी रोटी का टुकड़ा जो छिपाकर रखा था वह राजा के सामने प्रस्तुत करता है पर उस समय भी राजा सोचता है कि यदि कोई अतिथि आ जाये तो मैं उसे समर्पित करके फिर भोजन करूँ। उसी समय एक दौड़ती हुई महिला आती है जिसका बच्चा कई दिनों से भूखा था और जीवन के अन्तिम क्षणों में गुजर रहा था । महाराजा रन्तिदेव वह रोटी का आधा टुकड़ा उसे दे देते हैं और स्वयं भूखे रह जाते हैं।
रन्तिदेव ने ४८ दिन तक पानी भी नहीं पिया था । महामंत्री के अत्यधिक आग्रह से वे पानी पीकर पारणा करना चाहते हैं। महामंत्री ने जो एक प्याला पानी छिपाकर रखा था वह लाकर राजा को दिया । ज्यों ही पानी के प्याले को राजा मुह के पास ले जाता है उसी समय एक चाण्डाल आता है जिसका कुत्ता पानी के अभाव में छटपटा रहा था राजा उसे वह पानी का प्याला दे देता है।
रन्तिदेव अपनी दिव्य विचारधारा में निमग्न थे तभी देव आकर उनकी उदारता, करुणा, आत्मौपम्य भावना एवं दानवृत्ति की प्रशंसा करते हैं।
संयोगवश रन्तिदेव की इस दानवृत्ति एवं करुणा से ओतप्रोत तपश्चर्या के कारण शीघ्र ही वर्षा हुई और कुछ ही महीनों में राज्य में फैला हुआ दुष्काल नाम शेष हो गया।
यह थी सात्त्विक दान की वृत्ति, जिसे अपनाकर राजा रन्तिदेव कृतकृत्य