Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान के भेद-प्रभेद
१८१ का साक्षी ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र है । नन्दन ने बहुत उच्च भावना से दानशालादि बनवाई थीं और अनुकम्पादान का फल तिर्यंचगति नहीं होता, यह सैद्धान्तिक दृष्टि से स्पष्ट है, तब फिर क्या कारण था कि नन्दन मणिहार का वह दान तिर्यंचगति का कारण बना ?
इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार वहाँ कहते हैं कि नन्दन मणिहार दानशाला, वापी आदि बनाने के कारण मेंढक नहीं बना, किन्तु वापिका आदि में उसकी अत्यन्त आसक्ति (मूर्छा), नामना-कामना रह गई, इस कारण उन्हीं दुर्भावों से मरने पर उसे तिर्यंचयोनि प्राप्त हुई थी। किन्तु दानशाला आदि बनाने के पीछे तो उसकी भावना बहुत लोगों के उपकार की थी, इस कारण उसे पूर्व-जन्म का बोध होने पर वह स्वयं अपनी पिछले जन्म की भूल को महसूस करता है और उसकी शुद्धि करके पुनः स्वयं श्रावक व्रत ग्रहण कर लेता है, जब भगवान महावीर के पदार्पण की बात सुनता है तो बड़ी उमंग से वह फुदकता-फुदकता उनके दर्शनों के लिए चल. पड़ता है। किन्तु रास्ते में ही राजा श्रेणिक के घोड़ों की टाप से कुचल जाने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है और वह शुभ भावों में मरकर देवलोक में जाता है।
___ इसलिए सार्वजनिक और सबके लाभ की दृष्टि से खोले गये औषधालय, दानशाला आदि द्वारा दिया जाने वाला दान नामना, कामना, प्रशंसा और प्रसिद्धि की लिप्सा से रहित होने पर अनुकम्पादान की ही कोटि में आता है।
अनुकम्पादान वास्तव में मनुष्य की जीवित मानवता का सूचक है, उसके हृदय की कोमलता और सम्यक्त्व की योग्यता का मापक यंत्र है। दस प्रकार के दान में तारतम्य :
अनुकम्पादान से लेकर कृतदान तक दान के दस प्रकार मानव की भावना और उद्देश्य के परिचायक हैं। विभिन्न उद्देश्यों और भावनाओं को लेकर ही ये नामकरण किये गये हैं। अनुकम्पादान अनुकम्पा के उद्देश्य से दिया जाता है। संग्रहदान लोकसंग्रह की दृष्टि से दिया जाता है। भयदान भय से, कारुण्यदान शोक से, लज्जादान लज्जा से और गौरवदान गौरव की दृष्टि से दिया जाता है। अधर्मदान अधर्म कार्य के पोषण के लिए दिया जाता है । इसके विपरीत धर्मदान धर्मकार्य का पोषक होता है; करिष्यतिदान आकांक्षा और प्रतिफल की