Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
का इतना महत्त्व या फल नहीं है, जितना महत्त्व और फल सुपात्रदान का है । इसका समाधान यह है कि पात्रादि के भेद से दान के फल में जो अन्तर बताया गया है वह तो व्यवहार दृष्टि से बालजीवों को उच्च कोटि के दान का स्वरूप और महत्त्व समझाने के लिए बताया है, किन्तु अनुकम्पादान आदि का निषेध करने की दृष्टि से नहीं । यह भेद सिर्फ व्यवहारनय की दृष्टि से, ही बताया गया है, निश्चयनय की दृष्टि से तो दान के पीछे भावों की विचित्रता ही देखी जाती है, भावों की विविधता के कारण ही फलों की विविधता है ।
एक दूसरा सवाल खड़ा होता है कि कोई करुणामूर्ति दयालु सद्गृहस्थ दानशाला, धर्मशाला आदि बनाता है अथवा भोजनशाला खोलता है उसका वह दान क्या अनुकम्पादान नहीं माना जाएगा ? इस पर ग्रन्थकार गहराई में उतरकर जवाब देते हैं -
"पुष्टालम्बनमाश्रित्य दानशालादिकर्म यत् । तत्तु प्रवचनोन्नत्या बीजाधानादि भावतः ॥ बहूनामुपकारेण नानुकम्पानिमित्तताम् । अतिक्रामति तेनाऽत्र मुख्यो हेतुः शुभाशयः ॥" .
• किसी पुष्ट आलम्बन को लेकर दानशाला आदि जो कर्म हैं, वे
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प्रवचन प्रभावना के उद्देश्य से सार्वजनिक हित की दृष्टि से बोधिबीज (सम्यक्त्व) प्राप्त कराने के निमित्त से अनेक लोगों के लिए उपकारक होने से अनुकम्पा के निमित्त का उल्लघंन नहीं करते। क्योंकि इन सब में मुख्य हेतु शुभ आशय है ।
जैन धर्म शुभ भावों पर ही सारा खेल मानता है, जहाँ भाव शुद्ध होते हैं, वह दान भी अशुभ और संकीर्ण नहीं हो सकता, इसलिए उस दान को अनुकम्पादान की कोटि में ही माना जाएगा ।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि अगर दानशाला, धर्मशाला, बावड़ी आदि सार्वजनिक दान हो और अनेक लोगों के उपकार की दृष्टि से बनाई गई हों, किन्तु अगर ये पुण्य का कारण होती तो नन्दन मणिहार ने दानशाला, धर्मशाला, बावडी आदि बनवाई थी, किन्तु वह मरकर मेंढ़क क्यों बना ? क्या अनुकम्पादान का फल तिर्यंच योनि है ? नन्दन मणिहार की घटना