Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
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आधार से तथा कहीं पर उपदेश के रूप में दान की महिमा का उल्लेख बहुत ही विस्तार से हुआ है । इन दानों में विशेष उल्लेख योग्य है शास्त्रदान । हजारों श्रावक एवं भक्तजन साधुओं को लिखित शास्त्रों का दान करते रहे हैं । अन्य दानों की अपेक्षा इस दान का विशेष महत्त्व माना जाता है । शिष्यदान का भी उल्लेख शास्त्रों में आया है। पुराणों में आश्रमदान, भूमिदान और अन्नदान का स्थान-स्थान पर उल्लेख उपलब्ध है । जैन परम्परा के श्रमण, मुनि और तपस्वी आश्रम और भूमि को दान के रूप में ग्रहण नहीं करते थे । रजत और सुवर्ण आदि का दान भी ये ग्रहण नहीं करते थे । परन्तु सन्यासी तापस और बौद्ध भिक्षु इस प्रकार के दानों को सहर्ष स्वीकार करते रहे हैं ।
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संस्कृत साहित्य के पुराणों में भागवतपुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है । भागवत के दशम स्कन्ध के पंचम अध्याय में दान की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है - "दान न करने से मनुष्य दरिद्र हो जाता है, दरिद्र होने से वह पाप करने लगता है, पाप के प्रभाव से वह नरकगामी बन जाता है और बार-बार दरिद्र तथा पापी होता रहता है।" दान न देने से भयंकर परिणाम भोगने पड़ते हैं। आगे दान के सद्भाव का वर्णन किया है - "सत्पात्र को दान देने से मनुष्य धन-सम्पन्न हो जाता है, धनवान होकर वह पुण्य का उपार्जन करता है, फिर पुण्य के प्रभाव से स्वर्गगामी बन जाता है और फिर बार - बार धनवान और दाता बनता रहता है ।" इसमें बताया है कि दान का परिणाम कितना सुखद और सुन्दर होता है ।
संस्कृत के नीति काव्यों में दान :
जैन परम्परा के कथात्मक नीति ग्रन्थों में दान का बहुत विस्तार से वर्णन उपलब्ध होता है । महाकवि धनपाल द्वारा रचित 'तिलकमंजरी' में जीवन से सम्बन्ध प्रायः सभी विषयों का वर्णन सुन्दर और मधुर शैली में तथा प्रांजल भाषा में हुआ है। उसमें दान की महिमा का वर्णन अनेक स्थलों पर किया गया है। दान का फल क्या है ? दान कैसे देना चाहिए ? दान किसको देना चाहिए ? इन विषयों पर विस्तार से लिखा गया है । आचार्य सोमदेवसूरि कृत 'यशस्तिलकचम्पू' में धार्मिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्म भावों का बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण हुआ है। संस्कृत साहित्य में यह ग्रन्थ अद्वितीय एवं अनुपम