Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा है। इन समस्याओं के समाधान में से ही दान का जन्म हुआ । व्यक्ति अकेला जीवित नहीं रह सकता, वह समाजगत होकर ही अपना विकास कर सकता है। अतः दान की प्रतिष्ठा समाज के क्षेत्र में निरन्तर बढ़ती रही है। आज भी संस्थाओं को दान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कभी पहले थी। संस्था कैसी भी हो, धार्मिक, सामाजिक हो और चाहे राष्ट्रीय हो सबको दान की आवश्यकता रही है और आज भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है।
शान्तिनिकेतन, अरविन्द आश्रम, विवेकानन्द आश्रम और गांधीजी के आश्रम-इन सबका जीवन ही दान रहा है। जिसके दान का स्रोत सूख गया, उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। अतः दान की आवश्यकता आज भी उतनी है, जितनी कभी पहले रही है। भारत के इतिहास में अनेक सम्राटों का वर्णन आया है, जिन्होंने जनकल्याण के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया था । अशोक के दान का उल्लेख स्तूपों पर और चट्टानों पर अंकित है। सम्राट हर्ष प्रति पंचवर्ष के बाद अपना सब कुछ दान कर डालते थे । संन्यासी, तपस्वी, मुनि और भिक्षुओं को सत्कारपूर्वक दान दिया जाता था। ब्राह्मणों को भी दानं दिया जाता था। साधु, संन्यासी, भिक्षु और ब्राह्मण - ये चारों परोपजीवी रहे हैं। दान पर ही इनका जीवन चलता रहा है। आज भी दान पर ही ये सब जीवित हैं। दान की परम्परा विलुप्त हो जाये,तो सब समाप्त हो जाये । स्मृति में कहा गया है कि गृहस्थ जीवन धन्य है, जो सबके भार को उठाकर चल रहा है। गृहस्थ जीवन पर ही सब संस्थाएं चल रही हैं । अन्य सब दानोपजीवी हैं, एकमात्र गृहस्थ ही दाता है।