Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान से लाभ
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जिनके हृदय में हो जाती है, वह व्यक्ति फिजुल कामों में एक भी पाई खर्च करने से कतराता है, एक दियासलाई भी व्यर्थ खर्च करने में हिचकिचाता है, मगर समाज- - सेवा का कोई कार्य आ जाता है अथवा विपद्गस्तों को दान देने का प्रसंग आता है तो वे मुक्तहस्त से लुटाते हैं ।
पं. मदनमोहन मालवीयजी ने हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के लिए करोड़ों रुपये राजा महाराजाओं से इकट्ठा किया था । वे कहा करते थे “भारतवर्ष के हर घर पर दाता खड़ा है, कोई लेनेवाला चाहिए।" एक बार वे कोलकत्ता के एक नामी शेठ के यहाँ बड़ा भारी दान पाने की आशा से पहुँचे तो उस समय घर का मालिक बैठकखाने में ही बैठा था। पं. मालवीयजी को उसने सत्कारपूर्वक बिठाया । इतने में उनका एक छोटा लड़का आया और एक दियासलाई की सींक जलाकर डाल दी, दूसरी जलाने लगा तो सेठ ने उसे रोका, डॉटा और पिटा । लड़का रोता हुआ बाहर चला गया। मालवीयजी विचार में पड गये – “जो मनुष्य एक दियासलाई के जलाने पर अपने लड़के के थप्पड मार सकता है, वह सार्वजनिक संस्था के लिए क्या दान देगा ?" वे निराश होकर जाने लगे । सेठ ने कहा 'आप जा क्यों रहे हैं ? मेरे लायक सेवा फरमाइए न ?" मालवीयजी ने उनसे कहा "मैं तो हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए कुछ दान लेने आया था ।" सुनते ही सेठ ने ५० हजार रुपये का चैक काटकर दे दिया । मालवीय जी अवाक् रह गये । जाते-जाते उन्होंने पूछ ही लिया - " सेठ जी ! मैं तो पहले इसी कारण से निराश होकर जा रहा था कि जो व्यक्ति एक दियासलाई जलाने पर अपने लड़के के थप्पड मार सकता है, वह कोमल हृदय कैसे होगा ?"
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सेठ ने कहा " मालवीयजी ! जिस कार्य से लड़के का कोई हित न हो, भविष्य की परम्परा बिगड़े, उसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता । वैसे सदुपयोग के लिए लाखों रुपये खर्च करने को तैयार हूँ ।"
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तथागत बुद्ध की दान के सम्बन्ध में कितनी सुन्दर प्रेरणा है।
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"सक्कचं दानं देथ, सहत्थां दानं देथ ।
चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्धं दानं देथ ॥ १
१. दीघनिकाय २/१०/५