Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
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है। वह मनुष्य को तृप्त नहीं कर सकती ।" इस पर मैत्रेयी बोली"स्वामिन् ! तब मुझे यह भौतिक सम्पत्ति नहीं चाहिए। आप इसे बहन कात्यायनी को दे दीजिए। मुझे तो आध्यात्मिक सम्पत्ति दीजिये, जो अविनाशी हो, जिसे पाकर मैं अमरत्व प्राप्त कर सकूँ ।"
याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेयी की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने मैत्रेयी को आध्यात्मिक मार्ग बताया ।
इस संवाद से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तीर्थंकरों के सांवत्सरिक दान की तरह प्रत्येक व्यक्ति को इस भौतिक धन का परित्याग करके आध्यात्मिक धन पाने का प्रयत्न करना चाहिए । भौतिक धन के परित्याग के लिए सबसे उत्तम और सुलभ मार्ग 'दान' का है।
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हिन्दी के महान् प्रतिभाशाली साहित्यकार 'भारतेन्दु हरिश्चन्द्र' पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की समान कृपा थी । वे केवल अर्थ से ही धनी नहीं थे, दिल के भी धनी थे । मुक्तहस्त से उदारतापूर्वक धन लुटाने में उन्हें अपार सन्तोष होता था । एक दिन एक मित्र ने स्वाभाविक स्नेहवश उन्हें टोकते हुए कहा - "तुम्हारे द्वारा इस प्रकार धन लुटाने से भविष्य में कोई समस्या तो नहीं खड़ी होगी ? जरा सोच विचारकर खर्च किया कर ।"
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इस पर हरिश्चन्द्र ने खिलखिलाते हुए कहा " अरे भाई ! इस धन ने मेरे पिता को खाया, दादा को खाया और प्रपितामह को खाया और मुझे भी तो आखिर खायेगा ही । तो फिर मैं ही इसे क्यों न खा लूँ ?" विस्मय वि-मुग्ध मित्र हरिश्चन्द्र की इस दार्शनिकतापूर्ण उदारता से बहुत प्रभावित हुआ ।
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कहना न होगा कि धन का अगर दान के रूप में उपयोग नहीं किया जाता है तो वह मनुष्य को आसक्त, लुब्ध, कृपण अथवा विलासी या पतित बनाकर नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। यानी धन को खाने के बदले, धन मनुष्य को इस तरह खा जाता है।
विश्व के सभी धर्मों और संस्कृति में दान का मूल्य आज तक अकबंध चल रहा है । दार्शनिकों, धर्मचिंतको तथा समाजचिंतकों हमेशा विवेकपूर्ण और न्यायसंपन्न वैभव में से किये हुए दान की सराहना की है । हरएक परम्परा में दानवीरों पर प्रशंसा के पुष्पों की वृष्टि की है ।