Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
मनुष्य जब अपने हाथ से धन किसी को दान कर देता है या किसी अच्छे कार्य में खर्च कर देता है या परहितार्थ समर्पण कर देता है तो उसे उसका प्रायः दुःख या अफसोस नहीं होता, प्रत्युत उसके हृदय में आनन्द की अनुभूति होती है।
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जैन परम्परा में दान को सत्कार्य माना जाता है। स्व-पर के कल्याण के लिए, परिग्रह कम करने के लिए और ममत्व को घटाने के लिए कहा है । ऋषभदेव से लेकर चरम तीर्थंकर भगवान महावीर तक सभी तीर्थंकरों ने वर्षीदान दिया है ।
मनुष्य दान से ही गौरव प्राप्त करता है, उच्च स्थान पाता है; किन्तु धन के संचय करने से नहीं पाता । जैसे कि अपना सर्वस्व जल मुक्तहस्त से लुटाने वाले दानी मेघों का स्थान ऊपर है, जबकि अपने जलरूपी धन को संचित करके रखनेवाले समुद्रों का स्थान नीचे है ।
वास्तव में मेघ दानी हैं, इसीलिए उन्हें देखकर सभी प्राणी हर्षित होते हैं। चक्रवाक सूर्य को, चकोर चन्द्रमा को, हाथी विन्ध्याचल को, देवता मेरु पर्वत को देखकर हर्षित होते हैं, लेकिन बादलों को देखकर तो मोर, चातक, पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट आदि सभी हर्षित होते हैं, क्योंकि वे सर्वस्व दाता हैं । इसी प्रकार संसार में जो दानशील होता है उसे सभी चाहते हैं, सभी उसे देखकर आल्हादित होते हैं ।
दान देने वाले का हाथ सदा लेने वाले से ऊपर ही रहता है और वही हाथ गौरवपूर्ण होता है, जो याचक के हाथ से ऊपर हो । गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस दिशा में स्पष्ट प्रेरणा दी है
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'तुलसी' कर पर कर करो, करतर करो न कोय । जो दिन कर तर कर करो, ता दिन मरणं भलोय ॥"
'दानषट्त्रिंशिका' में दान की महिमा बताते हुए कहा है
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"जिस तीर्थंकर ने स्वयं एक वर्ष तक लगातार दान देकर दानरूप अमृत से सारे संसार को जिलाया, वही तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद जब भिन्नभिन्न देश-प्रदेशों में विचरण करने लगे तो जिनके पीछे भक्तिवश हड़बडाकर