Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान से लाभ
(ii) तीर्थंकरों द्वारा वार्षिकदान से प्रेरणा :
अन्तरात्मा की दान की प्रेरणा की आवाज में बड़ा बल होता है । महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर या अन्य तीर्थंकर जो सर्वस्व त्याग (दान) करके निकले थे, उसके पीछे अन्तरात्मा की प्रबल आवाज ही तो थी ।
आज दिन तक जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, वे सभी सर्व-समय ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक सूर्योदय से लेकर प्रातः कालीन भोजन तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राएँ दान देते रहे हैं । आचाराङ्गसूत्र इस बात का साक्षी है । वहाँ तीर्थंकरों के द्वारा वर्षभर तक दान दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख है -
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"संवच्छरेण होहिंति अभिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं । तो अत्थि संपदाणं पव्वत्ती पुव्वसूराओ ॥
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·एगा हिरण्ण कोडी अट्ठेव अणूणया सयसहस्सा । सूरोदयमादीयं दिज्जइ जा पायरासो त्ति ॥”
इस प्रकार का वार्षिक दान, यों ही नहीं हो जाता, न यह कोई बिना समझ का दान है । यह तो तीर्थंकर जैसे परम अवधिज्ञानी के अन्तःकरण की प्रेरणा से प्रादुर्भूत दान है, जिसकी अखण्ड धारा लगातार एक वर्ष तक चलती है और वह दान प्रक्रिया भी प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर कलेवा न कर लें, उससे पहले तक चलती है । इसके पीछे भी गंभीर रहस्य है । जगत की दरिद्रता को मिटाने के लिए एवं अपनी त्याग की समृद्धि, क्षमता और शक्ति बढ़ाने के लिए तो यह वार्षिक दान है हीं, परन्तु सबसे बड़ी बात है जगत को दान की प्रेरणा देना । जगत् के लोग यह समझ लें कि धन मनुष्य की प्रिय वस्तु नहीं है, जिसे कि वह प्रिय समझता रहा है । सबसे प्रिय वस्तु आत्मा है, उसे दान से ही श्रृंगारित - सुसज्जित किया जा सकता है, धन संग्रह से नहीं । अतः दीक्षा लेने से पूर्व तीर्थंकर वर्षभर तक दान देकर संसार को दान देने का उद्बोधन करते हैं कि "दान दिये बिना आत्मा की शोभा नहीं है । दान से ही सर्वभूत मैत्री, आत्मीयता, विश्ववत्सलता, विश्वबन्धुता आदि सम्भव है। दान से ही जीवन में उदारता आती है, स्वार्थ त्याग की प्रेरणा जागती है फिर मनुष्य हिंसा, असत्य, चोरी आदि दुष्कर्मों में मन से भी प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए सौ हाथों से कमाओ