Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा इटली की एक ऐतिहासिक घटना है। सर्दियों के दिन थे । लोग गर्म कपड़े पहने हुए बाजारों में घूम रहे थे। तभी एक बालक अपनी माँ के साथ बाजार आया। बालक की आयु ७ वर्ष से अधिक न थी। सड़क पर एक बूढ़ा भिखारी बैठा था । वह भीख मांग रहा था । बूढ़ा सर्दी से ठिठुर रहा था । बेचारे के शरीर पर फटे-पुराने चिथड़े थे। बालक की नजर भिखारी पर पडी। अपनी माँ की उँगली छोडकर वह बूढ़े को एकटक देखने लगा और अपनी माँ से कहा - "माँ ! इसे जरूर कुछ दो । बेचारा भूखा होगा। देखो न, बेचारा ठण्ड से काँप रहा है।"
बुढ़े भिखारी की आँखों से खुशी के आँसू टपकने लगे । वह बोला - "यह बालक एक दिन बड़ा आदमी बनेगा । दुःखियों के लिए इसके दिल में बड़ा दर्द है।" फिर बूढ़े ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे आशीर्वाद दिया।
यही बालक बड़ा होने पर इटली का नेता ‘मेजिनी' बना। .
अतः दुःखियों और पीडितों को दान देकर उनके दुःख मिटाने से उनके हृदय से भी आशीर्वाद के फूल बरस पडते हैं । इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने स्पष्ट कहा है - "दान से सातावेदनीय (शारीरिक, मानसिक सुख-शान्ति और समाधि) की प्राप्ति होती है । अर्थात् प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा करना, वृत्ति (आजीविका) देना यथोचित रूप से दान देना - सराग संयम आदि का योग, क्षमा और शौच ये सतावेदनीय के बन्ध के कारण हैं।"
इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि दान मानव-जीवन में समाधि प्राप्त करने का उत्कृष्ट कारण है।
संसार में शान्ति और सुव्यवस्था, रखने के लिए सद्भावना पैदा करने के लिए दान ही ऐसा अमोघ परम मंत्र है। हरिभद्रसूरि ने अष्टक में इसी रहस्य का उद्घाटन किया है
- दान देने वाले और लेने वाले दोनों में शुभ आशय को पैदा करता १. भूतवृत्त्यनुकम्पादानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमेती सद्वेधस्य । २. दानं शुभाशंयकर ह्वेतदाग्रहच्छेदकारि च।
सद्भ्युदयसारांगमनुकम्पाप्रसूति च ।। -हरिभद्रसूरि अष्टक