Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा पश्चात्ताप की भावना पैदा हुई । उसने सोचा - "मैंने अपने जीवन में कितने पाप कर्म कमाए; मैंने पैसे को जीवन का सर्वस्व समझा । एक रात भर में मैंने लाखों रुपये कमाए, पर किसी को एक पाई कभी दान नहीं दिया, आज तक मैंने धन इकट्ठा ही इकट्ठा किया। जिस धन के पीछे मुझे गर्व था कि मैं इससे दुनियाँ के सभी कार्य कर सकता हूँ, वह आज मिथ्या साबित हो चुका है, वह धन मुझे अपने रोग से मुक्ति नहीं दिला सका।"
उसने मन ही मन संकल्प किया – “यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊँ या यच जाऊँ तो अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दूंगा। बस, यह मेरा दृढ़ निश्चय .
रॉकफेलर ने उस सूची के अनुसार सभी संस्थाओं को चैक लिखकर भिजवा दिये । फिर रॉकफेलर ने अपने मैनेजर से कहा - "मैंने अपनी जिंदगी में जो आनन्द अभी तक प्राप्त नहीं किया था, वह आज इस दान के कारण मुझे प्राप्त हुआ है। मुझे इतनी आनन्द की अनुभूति होती है कि मैं रात-दिन दान देता ही रहूँ । एक मिनट भी दान के बिना खाली न रहूँ।"
परन्तु अफसोस ! रॉकफेलर के चैक जिन-जिन संस्थाओं के पास गए उन सब संस्थाओं ने उन्हें वापस कर दिया। कोई भी संस्था रॉकफेलर का पैसा लेने को तैयार न हुई । चैक वापस करने के साथ उन्होंने पत्र में लिखा कि "यह अन्याय अनीति से कमाया हुआ पैसा हम अपने पास नहीं रख सकते । इससे हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी।"
___ आखिरकार रॉकफेलर ने अपने एक मित्र को बुलाया, जिसका जीवन प्रामाणिक और न्यायनीतिपूर्ण था। रॉकफेलर ने उस मित्र से कहा - "मुझे इतने रुपये दान में देने हैं, अपने पापों के प्रायश्चित्त के रूप में । मुझे नाम नहीं चाहिए। अतः तुम ये रुपये ले जाओ और अपने नाम से अमुक-अमुक संस्थाओं को दे दो और मुझे अपने पाप के बोझ से हलका करो।" उसके मित्र ने वह सारा धन उन संस्थाओं को दे दिया। अब संस्थाओं ने उस धन को स्वीकार कर लिया । रॉकफेलर को इस दान से बहुत आनन्द आया ।
__इस प्रकार दान प्रायश्चित के रूप में पापों के विच्छेद (नाश), आत्मशान्ति और आनन्द का कारण बना ।