Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान : अमृतमयी परंपरा
संगम ने स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया और माँ के चले जाने के बाद खीर की हंडिया के पास बैठ गया । खीर जब पक गई तो हंडिया नीचे उतार थाली में खीर परोस ली।
__ संगम अब खीर ठंडी होने की प्रतीक्षा में था, इतने में ही मासिक उपवासी एक मुनि भिक्षा के लिए जा रहे थे। संगम ने मुनि को देखा तो उसके मन में विचार आया कि ऐसे मुनियों को मैं सेठों के यहाँ अक्सर देखा करता हूँ, ये भिक्षा पर ही गुजारा करते हैं । आज तो मेरे यहाँ खीर बनी है, इनके पात्र में पडेगी तो अच्छा है। वह उठकर अपनी कोठरी से बाहर निकला और मुनिवर को वन्दन-नमस्कार करके प्रार्थना की - "मुनिवर ! पधारो, मेरा घर पावन करो। मैं आपको भिक्षा दूंगा।" मुनि ने संगम की भावना देखकर घर में प्रवेश किया और आहार के लिए पात्र रखा। संगम ने बहुत ही उत्कट भाव से मुनिराज के रोकते-रोकते सारी की सारी खीर उनके पात्र में उडेल दी । आज संगम को मुनिराज को देने का बडा हर्ष था। बाद में थाली में जो खीर लगी बची थी, उसे वह चाटने लगा। उसको एक तरह से मानसिक तृप्ति थी। इतने में माँ आई, बेटे को थाली चाटते देखकर वह समझी, बहुत भूख लगी होगी, इसलिए सारी खीर खा गया होगा। परन्तु संयोगवश उसी रात को संगम के उदर में अतिशय पीड़ा हुई और उसी में ही उसका शरीर छूट गया। अन्तिम समय मे संगम की भावना बहुत अच्छी थी। इसलिए मरकर वह राजगृह नगर के अत्यन्त धनिक सेठ गोभद्र के यहाँ जन्मा। शालिभद्र नाम रखा गया। बहुत ही सुन्दर ढंग से उसका लालन-पालन हुआं । युवावस्था आते ही ३२ रूपवती कुलीन घर की कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ।
शालिभद्र के जो ऋद्धि, समृद्धि तथा सुख-सामग्री मिली वह सुपात्रदान का ही प्रभाव था।
किन्तु सुख-सामग्री मिलने के साथ यदि धर्म-बुद्धि न मिले तो वह जीव उस पौद्गलिक सुख में फँस जाता है। शालिभद्र को सुख-सामग्री के साथ तथा स्वर्गीय सम्पत्ति के साथ-साथ एक दिन धर्म-बुद्धि पैदा हुई और तभी शालिभद्र ने चढ़ती जवानी में सारी सुख-सामग्री एवं पत्नियों को छोड़कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली।