Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण
इस प्रकार सामान्य दान भी महादान की कोटि में तब पहुँच जाता है, जब वह अपनी न्यायोपार्जित कमाई में से दिया जाता है।
भगवान महावीर के समय में पूनिया नाम का एक उत्कृष्ट श्रावक हो चुका है, भगवान महावीर ने भी एक बार उसकी सामयिक साधना की प्रशंसा की थी । पूनिया सूत की पौनी बनाकर उन्हें बेचता था और उसी से अपना व परिवार का पोषण करता था। उसकी आय बहुत ही सीमित थी, पति-पत्नी दोनों अपनी इसी आय से अपना गुजारा चलाते और मस्त रहते थे। कहते हैं, प्राय: प्रतिदिन की कमाई साढ़े बारह दौकड यानी दो आने होती थी। उसी में से पूनिया की धर्मपत्नी अनाज स्वयं ताजा पीसकर रोटी बनाती थी। दोनों का पेट भरने के लिए इतना पर्याप्त था। मगर जिस दिन कोई अतिथि आ जाता, उस दिन वे उपवास कर लेते थे और अपने हिस्से का भोजन अतिथि को भेंट कर देते थे। . यह था पूनिया श्रावक का न्यायोपार्जित कमाई द्वारा प्राप्त अन्न का दान; इसे सच्चे माने में दान कहा जा सकता है।
. इसके अतिरिक्त पूनिया श्रावक में यह विशेषता थी कि वह बिना श्रम से एक भी वस्तु अपने यहाँ रखता नहीं था, अगर कोई रख जाता तो उसका उपयोग अपने परिवार के लिए बिलकुल नहीं करता था।
___ एक दिन पूनिया के यहाँ एक विद्यासिद्ध अतिथि आए । उस दिन पूनिया के उपवास था। वह पूनिया के सन्तोष, सादगी, सरलता और सत्यता से प्रभावित हुआ । उस दिन पूनिया की पत्नी ने उस अतिथि को भोजन बनाकर स्नेहपूर्वक खिलाया। अतिथि तृप्त हो गया। अतिथि ने सोचा- पूनिया के घर में विशेष सामान तो कुछ नहीं है, बेचारे पति-पत्नी कठिनाई से गुजारा चलाते होंगे। मेरे पास विद्या की सिद्धि है तो क्यों नहीं इसे मदद करता जाऊँ । पूर्णिमा की चाँदनी आकाश में छिटक रही थी, तभी पूनिया को निद्रामग्न देखकर सिद्धपुरुष उठा और खड़े होकर रसोई में पड़ा लोहे का तवा उठाया, फिर उसके साथ पारसमणि का स्पर्श कराया तो तवा सोने का हो गया। सवेरा होते ही सिद्ध पुरुष ने पूनिया से विदा लेकर काशी की ओर प्रस्थान किया । पूनिया ने सुबह रसोईघर में देखा तो तवा नहीं मिला। लोहे के काले तवे के बदले वहा सोने का