Book Title: Dan Amrutmayi Parampara
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
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दान की परिभाषा और लक्षण
७९ ऐसे स्वत्व-विसर्जन से दान भी, दाता भी और आदाता भी धन्य हो उठते हैं। .
ममत्व, स्वामित्व और स्वत्व का दान करते-करते जब अहंत्व का दान हो जाता है, तभी दान की सर्वोच्च भूमिका आती है।
जगडूशाह के दान के पीछे यही मनोवृत्ति थी। वह देते थे मुक्त-हस्त से, परन्तु साथ ही उसमें दान के साथ निरभिमानता, नम्रता, अर्पण की भावना थी। वह स्वत्व, ममत्व और स्वामित्व के साथ अहंत्व का विसर्जन दान करते समय किया करते थे।
समर्थ स्वामी रामदास के शिष्य छत्रपति शिवाजी अपने गुरु की मस्ती और आनन्द को देखकर सोचने लगे - इन राज्य, शासन, देशभक्ति और अन्य परेशान करने वाले दायित्वों से छुटकारा पा लिया जाए तो अच्छा ।
. अतः एक दिन जब समर्थ गुरु रामदास का आगमन हुआ तो शिवाजी ने कहा - "गुरुदेव ! मैं राज्य के इन झंझटों से उकता गया हूँ। एक समस्या का समाधान करता हूँ तो दूसरी आ खड़ी होती है । नित नई उलझनें आती हैं । अतः सोच रहा हूँ, मैं भी अब सन्यास ग्रहण कर लूं।" गुरुदेव ने सहज भाव से कहा – “सन्यास ! ले लो, इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है।" शिवाजी पुलकित हो उठे । वे तो सोच रहे थे कि गुरुदेव इसके लिए अनुमति नहीं देंगे, बहुत मनाना पड़ेगा इन्हें । मगर बात आसानी से बन गई । अतः शिवाजी ने कहा - "तो फिर अपनी दृष्टि का ऐसा कोई योग्य व्यक्ति बताइए, गुरुदेव ! जिसे मैं राजकाज सौंपकर आत्म-कल्याण की साधना करूं और आपके सानिध्य में रह सकू।" गुरुदेव बोले - "मुझे राज्य दे दे और चला जा निश्चिन्त होकर वन में । मैं चलाऊंगा राज्य का कामकाज ।" तुरन्त ही शिवाजी ने हाथ में जल लेकर राज्यदान का संकल्प कर लिया । राज्य का दानपत्र भी लिखकर उन्हें दे दिया और वे उसी वेश में जाने को उद्यत हुए। वहाँ से निकल ने और भविष्य के प्रबन्ध के लिए उन्होंने कुछ मुद्राएँ साथ में लेनी चाहीं। पर स्वामीजी ने यह कहकर मुद्राएँ ले जाने से इनकार कर दिया कि "अब तो तुम राज्य का दान कर चुके हो । राजकोष पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है।" "हा, गुरुदेव ! यह ठीक है।" कहकर शिवाजी रुक गए। फिर वे महल में जाने के